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कविता : ओ मेघ अब तो बरस जा

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

सूखी धरा तरसे हरियाली 
जाती आबिया लाएगी संदेशा 
माटी की गंध का होगा कब अहसास हमें 
गर्म पत्थरों के दिल कब होंगे ठंडे 
घनघोर घटाओं को देख 
नाचते मोर के पग भी अब थक चुके 
मेंढक को हो रहा टर्राने का भ्रम  
ओ मेघ अब तो बरस जा 
 
 
छतरियां, बरसाती 
भूली गांव-शहर का रास्ता 
उन्होंने घरों में जैसे रख लिया हो व्रत 
नदियां, झरनों के हो गए कंठ सूखे 
कल-कल के वे गीत भूले 
नेह में भर गया अब तो पानी 
ओ मेघ अब तो बरस जा 
 
हले खेत हो जैसे अनशन पर 
बादलों की गड़गड़ाहट 
बिजलियों की चमक से 
डर जाता था कभी प्रेयसी का दिल 
ठंडी हवाओं से उठ जाता था घुंघट 
मुस्कुराते चेहरे होने लगे अब मायूस 
ओ मेघ अब तो बरस जा 

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