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हिन्दी कविता : संझा-वधू

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शैली बक्षी खड़कोतकर

संझा-वधू तैयार है!
सुनहरे गोटे की लाल चुनर
लहरा उठी है, क्षितिज के कोने तक.
रत्नजड़ित कर्णफूलों से
झिलमिला रही हैं, दोनों दिशाएं.
हवा में पायल की मधुर रुनझुन है
और मांग की सिंदूरी आभा से
दीप्त है, विस्तारित अम्बर.



 
परन्तु वधू की आंखें ?
उनमें स्वप्निल निशा की
आतुर प्रतीक्षा नहीं,
सृष्टि का भरा-पूरा पीहर
छोड़कर जाने की उदासी है!
आओ, मंगल-आरती उतारे
अक्षय-दीप सजाएं और वार दे,
इस चिर-सुहागन के मस्तक पर
नेह और उल्लास की अक्षत
और देखना, वह भी भर देगी
हम सबकी झोली
तारों भरी रात से.....

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