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हिन्दी कविता : आईना

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पुष्पा परजिया 
आईना-ए-जिंदगी में खुद का अक्स देखते रहे  
ढूंढते रहे खुद को खुद में और यूं ही खोते रहे 
कभी देखा इस आइने में खुद को कीर-सा हमने 
कभी देखा खुद को अमीर-सा हमने
 
बताया आईने ने हमें सच, हमारी सच्ची तस्वीर क्या है
इंसा वही जो ठोकर खाकर संभाल ले खुद को 
एक दिन बताया आईने ने हमें, हम न समझे दुनिया का खुदा खुद को
कहा टटोलकर देख दिल अपना, और जब देखा हमने खुद को 


















 
पाया जो कुछ भी है, सब तो दिया खुदा तेरा ही है
आईने ने दिखाया सच का आईना हमको 
रहो जमींपर न उड़ो आसमां पर परिंदा बनकर 
क्यूंकि आसमां है परिंदों की जागीर
 
आईने ने कहा इंसा तू तो हार जाता सिर्फ एक हार से
फिर भी अहंकार और घमंड न छोड़े है तू और,
मान लेता है खुद को खुदा 
जीवन में कभी न कभी, खुदा, खुद को 
 
शुक्रगुजार हूं आर्ईना बनाने वाले का  
जिसने भरम तोड़ा है खुद को खुदा मानने वालों का
जब भी सवार हो भूत घमंड का इंसा तुझपे 
देख लेना आईना एक बार अपने अक्स को निहार लेना

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