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कविता : चार कांधों की दरकार

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

सांसों के मध्य संवेदना का सेतु 
ढहते हुए देखा 
देखा जब मेरी सांसे हैं जीवित 
क्या मृत होने पर 
संवेदनाओं की उम्र कम हो जाती
या कम होती चली जाती 
भागदौड़ भरी जिंदगी में 
वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है 
शायद किसी के पास वक्त नहीं 
किसी को कांधा देने के लिए 
 
समस्याओं का रोना लोग बताने लगे  
और पीड़ित के मध्य अपनी भी राग अलापने लगे 
पहले चार कांधे लगते 
कहीं किसी को अब अकेले ही उठाते देखा,
रुंधे कंठ को 
बेजान होते देखा खुली आंखों ने 
संवेदनाओं को शुन्य होते देखा 
संवेदनाओ को गुम होते देखा 
हृदय को छलनी होते देखा 
सवाल उठने लगे 
मानवता क्या मानवता नहीं रही
या फिर संवेदनाओं को स्वार्थ खा गया 
लोगों की बची जीवित सांसे अंतिम पड़ाव से 
अब घबराने लगी 
बिना चार कांधों के न मिलने से अभी से 
जबकि लंबी उम्र के लिए कई सांसे शेष है 
ईश्वर से क्या वरदान मांगना चाहिए ?
बिना चार कांधों के हालातों से कलयुग में 
अमरता का वरदान मिलना ही चाहिए
ताकि हालातों को बद्तर होने से बचाया जा सके

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