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कविता : कभी बारिश के वास्ते

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राजकुमार कुम्भज
कभी बारिश के वास्ते
कभी बारिश के रास्ते हाहाकार
 
और कभी बारिश में हठात् 
महंगा हुआ जाता है विरोध
 
विरोध में जाता है जो भी
जाता है छुपते-छुपाते ही
छुपते-छुपाते ही जाता है
अंधकार को हरने सामान्य-सा सूरज तक
 
एक न एक दिन अकस्मात ही
किंतु गहन-गंभीर चट्टानों के पीछे तक
 
वहां उस एक अंधकार में भी 
बसती है एक दुनिया वह, वह भी
 
जो कभी बारिश के रास्ते हाहाकार
कभी बारिश के वास्ते।

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