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हिन्दी कविता : प्रेम

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

छुई-मुई सी होती हैं पत्तियां 
कभी छू के देखी नहीं
डर था कहीं प्रेम की प्रीत 
बंद न हो जाए पत्तियों सी। 
घर-आंगन में बिखेरे दानों को 
चुगती हैं चिड़ियाएं 
चाहता हूं आहट न हो जाए 
खनक चूड़ियों की 
कर देती उनको फुर्र।
 
प्रेम की तहों में
ढूंढता हूं यादों की कशिश 
डर है मुझे किताब में 
रखे गुलाब की सूखी पंखुड़ियों का 
कहीं टूट कर बिखर न जाए। 

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