डगर-डगर चली बिटिया
गुनगुनाते हुए लोक गीत
जो उसने सीखे थे मां से
रच-बस चुके थे सांसो में
हर त्योहारों के मीठे गीत
सखियां बन जाती कोरस
स्वर मुखरित हो उठते तो
ठहर जाते लोगों के भी पग
कह उठते कितना अच्छा गाती
बेटियां अब कम हो जाने से
हो गए है त्यौहार भी फीके
गीत होने लगे आंगन से गुम
बेटे त्योहारों पर गीत बजाते
सुनने को अब पग कहा रुक पाते
लोक गीतों और बेटियों को
जब सब मिलकर बचाएंगे
सूने आंगन फिर सज जाएंगे
सुर करेंगे हवाओं से दोस्ती
बोल कानो में मिश्री घोल जाएंगे