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कविता : बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

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राकेशधर द्विवेदी

तुम नारी हो, तुम दुर्गा हो
नारी तुम सरस्वती
नारी तुम हो लक्ष्मी
नारी तुम भागीरथी।
 
तुम हो गंगा, तुम हो यमुना
तुम नदिया की धारा
तुम बिन न हो पाए
इस दुनिया में उजियारा।
 
इस सृष्टि की तुम हो जननी
त्याग की तुम परिभाषा
अपना सर्वस्व त्याग किया तुमने
कभी न की कोई अभिलाषा।
 
देती आई अग्निपरीक्षा
वर्षों से तुम सीता बनकर
विष का प्याला तुमने पिया
कृष्ण की प्यारी मीरा बनकर।
 
तुम कष्टों की धारणी बनकर
जीवन है हमको दे जाती
खुद कांटों का जीवन जीकर
गुलाब बन परिवार को महकाती।
 
पर यह पुरुष-प्रधान समाज
अभी तक तुमको न समझ पाया
कभी निर्भया, कभी शाहबानो बना
हमेशा है तुमको तड़पाया।
 
भ्रूण हत्या कर तुम्हारी
सृष्टि विनाश का निर्मम खेल रचा
बेटियों को करके अपमानित
अंधकार का पथ प्रशस्त किया।
 
तो हे मानव, यदि अंधकार से उजाले में आना है
तो बेटियों को पढ़ाना है, बेटियों को बचाना है
महिलाओं का सशक्तीकरण कर
सृ‍ष्टि के सुंदरतम निर्माण का
एक नया अध्याय लिख जाना है। 

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