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कविता : तिल तिल तड़पती हूं

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WD

ममता भारद्वाज 
तिल-तिल तड़पती हूं 
चलने के बावजूद उस राह पर!
कदम कदम पर गिरती हूं
फिर भी संभलती हूं प्यारी सी दुनिया को पाने की चाह में!!

अपनों के अहंकार और अंधविश्वास पर 
खोकर अपना आस्तित्व फि‍क्र सभी की करती हूं 
बजाए सच्चाई के चलती हूं उस राह पर !
 
फिर भी ओ रूप दिखाई नहीं देती
जिसकी तलाश मैं करती हूं उस राह पर!
जिन आखों में ख्वाब थे कुछ पाने की
उनमें ही पीर का भार लिए चलती हूं बजाय सच्चाई के उस रह पर!
 
कसक है मन में जग के इस रीत से
क्यों कैद कर दिया मुझको सलाखों के बीच में
खुला है आसमां फिर भी उड़ नहीं सकती सच्चाई की राह पर!
 
बोझ लिए ताउम्र का लाख जतन करती हूं  
अनमोल रिश्तों को संवारने के 
फिर भी घिर जाती हूं अलग-अलग सोच और वि‍चारों की राह पर!
 
फिर भी अपनी सीमा बनाए रखती हूं
अपनी हस्ती बना लेने की
तब भी उन आखो में परित्याग और प्यार का अंश दिखाई नही देता उस राह पर!

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