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हिन्दी कविता : पतंग हूं मैं..

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ज्योति जैन

, गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025 (16:58 IST)
प्यार और विश्वास से मांझा सूंता तो कटूंगी नहीं।
रहूंगी हरदम,
तुम्हारे साथ।
क्योंकि उड़ जाऊं चाहे कितनी दूर
गगन में ऊंचे,
घिर्री तो रहेगी सदा ही
तुम्हारे हाथ।
पतंग हूं मैं;
लेकिन डोर है जरूरी,
तुम्हारे सहयोग की तरह, जानती हूं उड़ नहीं पाऊंगी,
बंधे बिना तुमसे।
तुम्हारी उड़ंची बिना,
कैसे सवार हो समीर पर, पहुंचूंगी व्योम तक।
पतंग हूं मैं;
उड़ती नहीं प्रतिकूल,
बहकर सबके अनुकूल कोशिश करती हूं,
जीवन सहज हो।
जानती हूं बही प्रतिकूल पवन के,
तो हो सकती हूं छिन्न-भिन्न, तार-तार।
जा न पाऊंगी फिर कभी आसमां के पार।
पतंग हूं मैं;
सदा खींचकर ना रख पाओगे मुझे,
ढील भी देनी होगी कभी-कभी,
जिंदगी चलती रहे ताकि शीतल-मद्धम सुहानी बयार सी।
खुशियों की उड़ान देख मेरी, जानती हूं खुश होओगे तुम भी।
भूल जाओगे मेरी खुशी देख हाथ काटने का गम भी।
पतंग हूं मैं;
उड़ना चाहती हूं खूब ऊंचे आसमान में,
बिना इस डर से कि कट भी सकती हूं।
आसमान... मेरी आशाओं का, बुलंदियों का, सफलताओं का, खुशियों का, जो छू पाऊंगी तुम्हारे प्रेम और सहयोग की डोर की मदद से।
थाम लो मुझे, खींचो नहीं, उड़ना चाहती हूं मैं खुले आकाश में।
पतंग हूं मैं;
जीवन के सारे रंग समेटे उड़ती हूं तलाशने,
अपना एक मुट्ठी आसमान। चाहती हूं बस..! कटने ना दो कभी, कट भी जाऊं दुर्भाग्य से तो जानती हूं लुटने ना दोगे कभी।
सहज लोगे पुनः मुझे प्यार का लेप लगा।
बांध लोगे फिर मुझे,
प्यार और विश्वास के एक नए धागे से।
पतंग हूं मैं।

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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