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इंसानियत पर कविता : ऐसा मजहब चलाएं...

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राकेशधर द्विवेदी

चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं


 
दर्द होरी के आंगन में उतरा हो
आंखें जुम्मन की भर आए
रामचरित मानस की चौपाइयां
और कुरान के पैगाम
जहां साथ बैठकर
सुनाए जाएं
चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं।
 
सुन के मंदिर के नगाड़े जहां
मीर साहब गले से लग जाएं
हो मस्जिद में अजान जब
पंडितजी सम्मान में बैठ पाएं
 
ईद ‍की सिवइयां दिवाली के दीये
साथ मिल के खिलाई-सजाए जाएं
सपने अकबर ने जो आंखों में पाले
अमर की नजरों से देखे जाएं
 
चाहे मदरसे हों या गुरु आश्रम
गीत देशभक्ति के केवल गाए जाएं
चाहे गुरुद्वारा हो या गिरजाघर
केवल नफरत समाप्त करने के संदेश आएं
 
केवल एक सपना आंखों में पालें
सबसे बेहतर हो हिन्दुस्तान वाले
केवल तरक्की और विकास के
सपने आंखों में पाले जाएं
 
झंडा ऊंचा रहे हमारा
ये सपने लेकर जिंदा रहें
और इसी सपने को पूरा
करते हुए खप जाएं
 
चलो 
ऐसा मजहब चलाएं
जहां इंसानियत के गीत गाए जाएं।
 

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