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किन्नर पर काव्य : हिंजड़े की व्यथा

हमें फॉलो करें किन्नर पर काव्य  : हिंजड़े की व्यथा
सपना मांगलिक
 
कहते विकलांग उसे, जिनका अंग भंग हो जाता
मिलता यह दर्जा मुझको तो, क्यों मैं स्वांग रचाता
 
झूठा वेश खोखली ताली, दो कोठी बस खाली 
जीता आया नितदिन जो मैं, जीवन हैं वो गाली।
 
घिन करता इस तन से हरपल, मन से भी लड़ता हूं
कोई नहीं जो कहे तेरा, मैं दर्द समझता हूं।
 
तन-मन और सम्मान रौंदे, दुनिया बड़ा सताए
होता मेरे साथ भला क्यों, कोई जरा बताए।

अपनों ने ही त्याग दिया जब, मान गैर क्यों देते
जैसा भी है अपना है तू, गले लगाकर कहते।
 
लिंग त्रुटि क्या दोष मां मेरा, काहे फिर तू रूठी
फेंक दिया दलदल में लाकर, ममता तेरी झूठी।
 
मेरे हक, खुशियां सब सपने, मांग रहा हूं कबसे
छीन लिया इंसा का दर्जा, दुआ मांगते मुझसे।
 
सब किस्मत का लेखा जोखा, कर्म प्रभाव तभी तो
मैं अपने दुःख पर लेकिन तुम, मुझ पर ताली पीटो।
 
मित्र, बच्चे, घरबार न मेरा कोई जीवन साथी
बस्ता, कॉपी न नौकरी बस, ताली साथ निभाती।
 
बचकर निकलो इधर न गुजरो, वो जा रहा हिंजड़ा, 
केश घसीट पुलिस ले जाती, जैसे स्वान पिंजरा।
 
तुम सम ही सपने हैं मेरे, मैं भी ब्याह रचाऊं
लाल जोड़ा, नाक में नथनी, कुमकुम मांग सजाऊं।
 
बन प्रति वर्ष अरावन दुल्हन, कैसे मैं इठलाती,
दिन सोलह सुहागन अभागी, विधवा फिर हो जाती।
 
है तन अधूरा मन अधूरा, ना कुछ मुझमें पूरा
ताली गाली लगती, फिर भी जलता इससे चूल्हा।
 
जितना श्रापित मेरा जीवन, दुखद अधिक मर जाना,  
जूते चप्पल मार लाश को, कहते लौट न आना।

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