नदी कुछ सोच रही है
जैसे कुछ मौन की भाषा बोल रही है
देख रही है वहां निरावृत्त करते हुए तुम्हें
इस सुन्दरतम धरा को
देख रही है श्राद्ध करते हुए, उस श्रद्धा का
जो वर्षों से तुम्हारे हृदय में था।
बाजारवाद के इस युग में
तुम उसे दु:शासन बन निर्वस्त्र कर रहे
तमाम लोक-लज्जा और हया त्यागकर
उसे तुम अस्त-व्यस्त कर रहे।
तुम्हारी इस घिनौनी हरकत से
वह नाले में तब्दील हो रही।
लहराती, इठलाती, मचलती हुई
इसकी प्रभा दिन-प्रतिदिन क्षीण-मलिन हो रही
तुम अपनी तमाम ओछी हरकतों से
उसे छल रहे-मिटा रहे हो
उसके अस्तित्व, उसके वजूद को तोड़-मसल रहे।
लेकिन सावधान! नदी का अस्तित्व तुम्हारे जीवन का प्राणवायु है
उसके त्याग, बलिदान और संयम के कारण तुम चिरायु हो
तो अब! अपने इस चिंतन में बदलाव लाओ
नदी 'मां' स्वरूपा है, इसका खोया गौरव वापस लाओ।