अशुतोषी मां नर्मदा मुझे ऐसा ज्ञान दे दो,
सर्व पाप विनिर्मुक्तयो का शुभ वरदान दे दो।
मनुज अब घिर गया है अति के अतिचार में,
विषम व्यवहारी हो चुका है अहम के व्यापार में।
दिग्भ्रमित-सा घूमता है बुद्धि से लाचार है,
ढूंढता है शांति-सुख व्यथित-सा बेकार है।
विपत में तेरा सहारा मां ऐसा अंतर्ज्ञान दे दो,
सर्व पाप विनिर्मुक्तयो का शुभ वरदान दे दो।
विषम अंतर्दाह से जल रहा सारा जगत,
अनाचारों में लगा जन है क्षोभित व्यथित।
लूटकर तेरे किनारे लोग तुझको पूजते हैं,
त्रस्त जीवन बनाकर पाप से फिर जूझते हैं।
अमृतमयी धारा मां नर्मदा भक्तों को स्वाभिमान दे दो,
सर्व पाप विनिर्मुक्तयो का शुभ वरदान दे दो।
अनहद नाद करती बढ़ती हैं तुम्हारी जल शलाकाएं,
आदि कल्पों से सुशोभित अविचल उत्तुंग पताकाएं।
दुर्गम पथों को लांघ तुम हो अविराम अविजित,
शमित करती अभिशाप सबके उत्ताल तरंगित।
धन्य धारा मां नर्मदा मुक्ति का संधान दे दो,
सर्व पाप विनिर्मुक्तयो का शुभ वरदान दे दो।