- ऋचा दीपक कर्पे
कितने दिन हुए
न कुछ सोचा, न लिखा!!
चलो आज कविता लिखी जाए...
बैठा जाए कलम ले कर..
आज तो लिखना ही है!!
यह ठान कर...
किताब छपवानी है
कवयित्री कहलाती हो!
और....
बीस कविताएं भी न लिखी
अब तक!!
खुद को ही एक फटकार लगाई..
लिखो तो ज़रा, कहकर...
दिमाग दौडने लगा
विषयों की खोज में
सोचने लगा देश पर लिखूं
या देशभक्ति पर
फूल पर लिखूं या पेड़ की पत्ती पर?
चुनावी लहर पर लिखूं
या तपती गर्मी के कहर पर??
देश में भ्रष्टाचार भी है और
महिलाओं पर हो रहा
अत्याचार भी है!
निजी पाठशालाओं की
चलती मनमानी है
तो अस्पतालों में बेईमानी भी है
फिर सोचा,
चलो पहाडों-झरनों पर लिखा जाए
या पवित्र निश्चल प्रेम का ही
विषय चुना जाए...!
दिमाग दौड़ता ही रहा
दिशाहीन घोडे की तरह
मन के आसमान में विचार
मेघ बन कर गरजे..
परंतु यथार्थ की धरा पर
एक बूंद भी न बरसे..
थक हार कर
फिर रख दी कलम
यूं सोच कर तो
कविता लिखना न हो पाएगा
यह तो अंदाज़-ए-इश्क है
जब होना होगा हो जाएगा...।