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कविता : शिल्पकार

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सुबोध श्रीवास्तव

तुम,
सचमुच महान हो 
शिल्पकार-
 
तुम्हारे हाथ 
नहीं दुलारते बच्चों को 
न ही गूंथते हैं फूल 
अर्द्धांगिनी के केशों में 
बस, उलझे रहते हैं 
'ताज' बनाने में-
 
और/ बाद में
फेंक दिए जाते हैं
काटकर
तब भी/ आखिर क्यों
नहीं कम होता
तुम्हारा
'ताज' के प्रति अनुराग?

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