- शशींद्र जलधारी
25 जून उन्नीस सौ पचहत्तर,
जब ग्रहण लगा लोकतंत्र के सूरज पर।
छा गया आपातकाल का अंधियारा,
कतर दिए मौलिक अधिकारों के पर।।
था वो जुल्मो-सितम का दौर
नहीं पता था होगी भोर,
ठूंस-ठूंस कर भर दी जेलें
रौंद डाला कानून चहुंओर।।
वो बन बैठी थी तानाशाह
केवल सत्ता की खातिर,
कहने को तो थी वो नारी
पर थी वो दिल से अति शातिर।।
पूरा देश ही बना दिया था
एक किस्म का बंदीगृह,
न अपील थी न दलील थी
न सुना जा रहा था अनुग्रह।।
हमें न कहो तुम मीसाबंदी
हम हैं लोकतंत्र के प्रहरी,
आजादी की रक्षा के हित
जान भी दे देंगे हम अपनी।।
स्वतंत्र भारत के इतिहास का
था वो एक काला अध्याय,
जिसकी हर पंक्ति में लिखा
था मनमानी और अन्याय।।
दोबारा वो काले दिन
अब हम नहीं लौटने देंगे,
तोड़ देंगे उन हाथों को
जो जनतंत्र का गला घोंटेंगे
प्रजातंत्र के रक्षक हैं हम
लेते आज सब मिलकर प्रण,
सहन नहीं करेंगे हम अब
भारत मां पर कोई आक्रमण।।
तानाशाही की मुखालिफत
को नाम दिया था देशद्रोह,
अगर यही सच है तो फिर
हम करेंगे बार-बार विद्रोह।।
(सन् 1975 में आपातकाल के दौरान लेखक तीन महीने इंदौर की जेल में निरुद्ध रहे।)