रात की चहल-पहल से जरा हटकर,अँधेरे खंभे के नीचे खड़ी आकृति।उस पूरे जिस्म में से,सिर्फ दो आँखें ही कुछ ढूँढती सी हैखजुराहो की मूर्तियों सी,ओढ़ी हुई अदा,प्रसाधनों से स्वयं को खूबसूरत दिखाने की कोशिश में, अँधेरे में खंबे से टिकी नारी, नि:शब्द सी देखती, मात्र सवालिया निगाहें,और उन निगाहों से कतराते-बचते,तेज रफ्तार से चलते शरीर लोग,अचंभा होता है मुझे,सदियों से समाज द्वारा गढ़ी गई कभी नगरवधु के रूप में तो कभी देवकन्या के लबादे में,कभी इंद्र के दरबार में थिरकती तो कभी वेश्याओं के कोठों में तन बेचतीसमाज का अनिवार्य अंग और समाज द्वारा ही ितरस्कृत? समाज में खड़े होने के लिए रात का अँधेरा ही क्यों? मन करता है, उसे हाथ पकड़कर जगमगाती रोशनी के नीचे खड़ी कर दूँ,उसकी ही जिंदगी में आखिर ये तिरस्कार अपमान और अँधेरा क्यों?खजुराहो की मूर्तियों में हम शिल्प,सौंदर्य और अदा तलाश करते हैं,सिने तारिकाओं में हम, खूबसूरती, रोमांच और रोमांस ढूँढते हैं,अपने घरों की स्त्री में हमशर्मोहया, लज्जा व पतिव्रता का संगम ढूँढते हैं ये सब स्त्रियाँ जगमगाती रोशनी के नीचे खड़ी हैं।अपने रूप सौंदर्य व गर्वोन्नत अदा के साथ
आत्मविश्वास व अकड़ भरी मुस्कुराहट के साथ
खंबे से टिकी नारी ही,
सदियों से अँधेरों में क्यों?
उनके पास तो सब कुछ है,
शिल्प सौंदर्य, खूबसूरती कला अदा...।