रजनी यादव
मैं कैक्टस की पक्षधर हूँ
क्योंकि
मरुभूमि में भी, अपने काँटों से
पानी संजोए रखने की सामर्थ्य
लुभाती है मुझे।
मुझे भाता है
काँटों से आवृत्त कैक्टस का ऊँचा शीश
जिसे,
वसंत की मदमस्त हवा भी
नत नहीं कर सकी।
गर्म रेतीली झंझा के थपेड़े
जिसकी हरीतिमा कम ना कर सके।
उसने देखे हैं
फूलों के मुरझाए वे रंग
जो
दौलत और सत्ता के चरणों में गिरकर
बदरंग हो गए
और गवाँ दिया अपना स्वत्व
जीवन भर चूर रहे
अपने लिजलिजे सौन्दर्य दर्प में।
उतावले बन
अपना सर्वस्व लुटाते रहे
ऋतुराज पर
क्या स्थायी रख सके अपनी खुशबू?
सुन्दरता, स्वाभिमान?
और कैक्टस खड़ा है मरुभूमि में
अपनी कालजयी मुस्कान लिए
आकाश निहारता
अपने काँटों के सौन्दर्य को,
मानदंड बनाए
औषधीय सेवा के गुणों को समेटे
स्वाभिमान के साथ।
साभार : अक्षरा