जो जुलूसों को साथ लाए हैं
सुर्खियों में वही समाए हैं
राहगीरों की बात मत पूछो
वो तो दिन-रात पिसते आए हैं
वक्त ने छीनकर सभी फुरसत
कुछ खिलौने हमें थमाए हैं
संत को लोग ठग समझते हैं
आप धूनी कहाँ रमाए हैं
क्या हुआ खुद से दुश्मनी गर की
हमने कुछ दोस्त तो कमाए हैं
अपनी पाकीजगी दिखाने को
लोग अब खून से नहाए हैं
ढूँढ़िए आग भी कहीं होगी
चंद चेहरे जो तमतमाए हैं
जख़्म कब तक खुले रखेंगे हम
आप अब तक नमक छिपाए हैं
ढूँढ़ जिसकी मची है शहरों में
लोग जंगल में छोड़ आए हैं
इन अँधेरों से पूछना राही
हम भी कुछ रोज टिमटिमाए हैं
साभार : समकालीन साहित्य समाचार