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जुम्मन चाचा की वह चाय

राजकुमार कुम्भज

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दिसंबर की नरम धूप सताती है

रह रह कर छब्बीस नवंबर की याद आती है

मगर दिन रात यह लगता रहता है

कि जीवन का पल-पल

संगीनों के साये में कटता है

परदा हटता तो है

मगर दिन-रात यही लगता रहता है

कि पृथ्वी का कोना-कोना

बुजदिलों की दहशत से काँपता है

पत्थर पर बारिश होती तो है

मगर, दिन-रात यही लगता रहता है

कि आकाश के हरेक सिरे से

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खाने को मिल रहे हैं दहकते अंगारे

दिसंबर की सर्दी कुछ ऐसी ही है इस बार

हद हुई जाती है

कि पता नहीं कहाँ गायब है

जुम्मन चाचा की वह चाय

जो हर सर्दी में वर्दी बन जाती है !

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