जाने कितनेरूप-रंग, डील-डौल में फैले हैंउद्गम से कछार तकनदियों के हत्यारेफिर भी बाकी हैपहाड़ की नाभि में अमृतकुंडकोरे बिम्ब या प्रतीक रचती भाषाबाँझ होती हैऔर लहरों के हाथों जल तरंग बजातीसार्थक ध्वनियों से सतपुड़ा को अनुगुंजित करती गंजाललोक धुनों की टेक पर गीत गाती
नाचती थिरकती
शैल-शिखरों वनांगनों से विदा लेती
रेवा से गले मिलने
उतार चढ़ाव लाँघती दौड़े जा रही है।
साभार : अक्षरा