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भीड़ में कुछ तनहा हूँ...

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प्रियंका पांडेय

ND

भीड़ में कुछ तनहा सी
अपलक कुछ देखती हूँ
रेत को मुठ्ठी में भर
थामें रखने की चेष्टा कर
अपने एकाकीपन में तुम्हें
सहेज कर रखती हूँ...

घबराती नहीं हूँ भीड़ से
इस भीड़ ने ही पाला है मुझे
मगर सोचती हूँ तुम्हें जब
पाती हूँ खुद को बिल्कुल अलग
इस भीड़ से अलग-थलग
अपने मन के सुदंर भवन में
घुल जाती हूँ एकरस एकाकीपन में...

तुम्हारे एहसास के पुलिंदे को
सजा लेती हूँ केश में
तुम्हारे शब्दों के वस्त्रों को
लपेट लेती हूँ देह में
फिर तुम्हारे स्पर्श का इत्र लगा
निकल जाती हूँ इस भीड़ में
मगर फिर भी कहते हो तुम
कि मैं भीड़ में कुछ तनहा हूँ...।

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