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मजबूर हो जाते हैं लोग

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शिवनाथ 'बिस्मिल'
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सहते-सहते ग़म को जब भी चूर हो जाते हैं लोग।
कुछ भी करने के लिए मजबूर हो जाते हैं लोग।

उम्र भर कहते रहो तो पूछता कोई नहीं।
एक-दो अशआर से मशहूर हो जाते हैं लोग।

या तो वह दरवेश हो जाते हैं या खानाख़राब।
रस्म-ए-दुनियादारी से जो दूर हो जाते हैं लोग।

यूँ तो वह नाकामियों का अपनी करते हैं गिला।
कामयाबी पर मगर मगरूर हो जाते हैं लोग।

रात भर सूरज की करते हैं बुराई वह मगर।
दिन में तारों की तरह काफूर हो जाते हैं लोग।

ऐसे भी हैं लोग जिनकी कोई भी गिनती नहीं।
ऐसे भी हैं जो नज़र के नूर हो जाते हैं लोग।

उनसे कहता हूँ जिन्हें 'बिस्मिल' नहीं सच पर यकीं।
सच की ख़ातिर ईसा-ओ-मंसूर हो जाते हैं लोग।

साभार : अक्षरम् संगोष्ठी

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