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मधुर नज्मी
झरना निकला पर्वत निकला सागर निकला
हर लम्हे की आँखों से क्या मंज़र निकला
क़दमों की आहट सुनकर दिल ने दोहराया
बरसों बाद जहाँ से कोई मुसाफिर निकला
ना दरवाजा ना दीवारें ना छत कोई
वो मलबों का ढेर तो मेरा ही घर निकला
साँसों की हल्की टक्कर से बिखर गया है
क्या बतलाऊँ जीवन कैसा जर्जर निकला
ना पूछो क्या मेरे दिल पर गुज़री साहिल
समझा था आकाश जिसे वो पिंजर निकला ।
साभार:प्रयास