स्त्री हूँ मैं पुरुष-मन का अनुराग बनकर पल-पल फैलना चाहती हूँ मैं आक्षितिज ओ मेरी पृथ्वी! तुममें समा जाना चाहती हूँ मैं फिर-फिर हरियाली बनकर उगने के लिए ओ मेरे सूर्य! तुम्हारी संज्ञा बन जाना चाहती हूँ मैं प्रकाश और गरमी से भरी हुई अनन्त यात्राओं पर चलने के लिए।