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आम आदमी आज एक नारा है : अज्ञेय

अज्ञेय से ओम निश्चल की बातचीत

हमें फॉलो करें आम आदमी आज एक नारा है : अज्ञेय
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आज से कोई 29-30 वर्ष पूर्व वह जाड़े का कोई दिन था। अज्ञेय जी साक्षरता निकेतन, लखनऊ में आयोजित वत्सल निधि शिविर में आए थे। मैंने अपने एक साहित्यिक मित्र के साथ अज्ञेय जी से मिलने व बातचीत की योजना बनाई। यद्यपि उस दिन सायं वे नगर दर्शन के लिए चलने के लिए तैयार थे पर हमें टेप रिकॉर्डर और उनकी कतिपय पुस्तकों आदि के साथ अत्यंत जिज्ञासु भाव से आया जानकर नगर दर्शन का कार्यक्रम स्थगित कर वह हमसे बातचीत करने के लिए सहमत हो गए।

उनसे लगभग एक घंटे की बातचीत हुई। हमारे सवाल बेशक कुछ उत्तेजक थे परंतु अज्ञेय जी ने पूरे धैर्य और संजीदगी से जवाब दिए। यह बातचीत किन्हीं कारणों से देर से ट्रांसक्राइब हो सकी और फिर कहीं फाइलों में गुम हो गई। यह गुमशुदा बातचीत अभी मिली जो पाठकों के लिए संपादित रूप में प्रस्तुत की जा रही है :

'पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे, काँपते ये गीत मेरे। दूरवासी मीत मेरे।' ऐसे गीतों के बहाने आपने जो गीत यात्रा शुरू की थी, कविता में प्रयोग की संभावनाओं को महसूस करते हुए उससे एकाएक अलग क्यों हो गए?

मेरी समझ में नहीं आता कि इसका मैं क्या जवाब दे सकता हूँ। कोई जवाब, जो भी कविताएँ सामने आई हैं, यदि उनमें नहीं हैं तो मैं मानूँगा कि वास्तव में इसका कोई जवाब नहीं है। गीत छोड़ना क्यों आवश्यक जान पड़ा, इस संदर्भ में कुछेक बातें मैं दोहरा सकता हूँ, क्योंकि आप इसे बहुत जरूरी समझते जान पड़ते हैं। दरअसल, गीत कविता की एक छोटी-सी शाखा है और हमेशा एक उसकी उप शाखा-भर रही है। कविता और गीत में हमेशा अंतर रहा है लेकिन कविता जब तक वाचिक परंपरा में थी यानी एक प्रत्यक्ष समाज में सुनाई जाती थी और सुनकर ही, सामाजिक रूप में ग्रहण की जाती थी, तब तक उसका स्वभाव दूसरा था और जब वह एकांत में पुस्तक से पढ़कर ग्रहण करने वाली चीज हो गई, तब उसका स्वभाव बदल गया।

इस परिस्थिति में उसके गीति रूप की गौणता और भी गौण हो गई। अब कविता को कविता बने रहने के लिए गीत होना न केवल जरूरी नहीं है बल्कि उसका वह रूप जो कि एक प्रत्यक्ष समाज के सामने श्रव्य रूप में प्रस्तुत किया जाने वाला रूप था, उससे अलग होना एक हद तक जरूरी हो गया है तो इसलिए गीत को छो़ड़ देना या केवल कभी-कभी गीत लिखना कविता के भीतर यह स्थिति एक सहज विकास की स्थिति थी।

कविता के विकास को प्रायः वादों और विचारधाराओं से जो़ड़ कर देखा जाता रहा है। क्या कविता के अर्थोत्कर्ष में इन प्रयोगों/वादों की कोई सार्थकता रही है?

आज कवि कर्म ब़ड़ी कठिन परिस्थिति में किया जा रहा है। एक तरफ उस पर राजनीति का दबाव है, राजनीतिक संगठन के भीतर वह लिखता है और कविता को बनाए रखने के लिए एक हद तक उस राजनीति से लड़ना और शायद एक हद तक उससे समझौता करके अपने लिए जगह बनाना आवश्यक है।

दूसरी तरफ वह व्यावसायिकता से लड़ रहा है, उससे भी उतना ही आक्रांत है। तो इस दोहरे आक्रमण के बीच वह यह भी पहचानता है - नया कवि विशेष रूप से कि सिर्फ कविता के आत्यंतिक गुण या कि महत्व के बल पर अगर वह चाहेगा कि कभी वह प्रतिष्ठित हो जाए तो उसको दसियों बरस लग सकते हैं और यह भी संभव है कि जब तक वह प्रतिष्ठित हो, तब तक वह प्रतिभा ही चुक जाए। इसलिए वह उन परिस्थितियों को देखता हुआ यह प्रयत्न करता है कि मैं जल्दी से जल्दी स्थापित हो जाऊँ, तब राजनीति जो उसे नारेबाजी से लाभ दिखाती है और व्यवसाय उसे विज्ञापन के जरिए जल्दी से जल्दी स्वयं को स्थापित करने का प्रयत्न करता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यह अच्छी बात है किंतु वह यह क्यों कर रहा है, इसका जवाब आपको केवल उसी से नहीं माँगना चाहिए, यह अपनी समूची राजनीतिक स्थिति से माँगना चाहिए। आखिर क्यों हमारी सामाजिक स्थिति एक कवि को लाचार करती है कि वह ऐसी आत्म-विज्ञापन की भंगिमाएँ अपनाए?

अक्सर यह सुनने को मिलता है कि आज की कविता आम आदमी की समझ से बाहर होती जा रही है। यह कुछ थोड़े से बुद्धिजीवियों की समझ की चीज रह गई है। आम आदमी के संघर्ष और यथार्थ को आज की कविता कहाँ तक संप्रेषित कर रही है ?

मैं नहीं जानता कि आपका ध्यान इस ओर गया या नहीं कि आपका यह प्रश्न कुछ एक नारों की आवृत्ति कर रहा है। अनुकूल भाव से या कि प्रतिकूल भाव से। आम आदमी कौन होता है। आम आदमी आज का एक नारा है। कविता आम आदमी के लिए लिखी जाती है, यह एक और नारा है। कोई आम आदमी कविता नहीं लिखता।

आम आदमी बातचीत करता है, कहानी सुनता है इसलिए कहानी कहता भी है। कविता लिखना ही एक असाधारण कर्म है और यह बात भी कि कविता थोड़े से लोगों तक सीमित रह जाती है यह बात झूठ तो नहीं है। हमेशा कुछ कविता ऐसी रहीं जो छोटे से समाज के लिए सीमित रहीं और एक दूसरे ढंग की कविता रही जो एक बिल्कुल दूसरे या कि बड़े समाज के लिए, अपेक्षतया बड़े समाज के लिए रही।

पूरे के पूरे समाज के लिए कभी एक कविता नहीं रही, क्योंकि उनके संवेदन में हमेशा एक अंतर रहा है। तो अगर हम आम आदमी की काल्पनिक लड़ाई को एक तरफ रखें तो हम देख सकते हैं कि फिर हमें अगर कविता के प्रभाव में जो अंतर आया है - वाचिक कविता से छपी हुई कविता तक पहुँचने में तो हम आपलोग शायद नहीं लेकिन मेरी पीढ़ी के लोग जरूर पहचान सकते हैं कि हमारे बचपन में भी कविता छोटे ही समाज की चीज समझी जाती थी।

मैं इस समय कविता को इस अर्थ में लोक साहित्य में लोकगीतों का जो स्थान है, उससे अलग रूप में रख रहा हूँ। कविता छपती नहीं थी। जो कवि थे या काव्यप्रेमी थे, जब तब एक समाज कविता सुनाते और सुनते थे। उनका समाज वहीं तक सीमित था और उसमें स्वीकृत हो जाने या उसमें यश पा लेने पर संतुष्ट हो जाते थे।

दूसरा पक्ष इसका यह है कि कविता किताब में छपती है और किताब का बिकना जरूरी है इसलिए कवि भी उस व्यावसायिकता से पूर्णतया अलग नहीं हो सकता क्योंकि उसका लेखन उसकी आजीविका के साथ जु़ड़ गया है। इसलिए वह यह कह तो सकता है कि सरकारी पत्र हैं, कुछ व्यावसायिक पत्र हैं और उनके बीच मैं फंसा हुआ हूँ लेकिन वह क्योंकि किताब छापना चाहता है इसलिए वह स्वयं स्वेच्छापूर्वक फंसता है।

व्यावसायिकता के नियम उस हद तक उसको मानने ही होंगे। उससे संघर्ष करता हुआ भी यदि वह वर्तमान परिस्थितियों में किताब छपाता है तो उसे प्रकाशक को खोजना होगा। प्रकाशक से कुछ न कुछ अनुबंध करना होगा इत्यादि। उन सब नियमों को गलत मानते हुए भी वह आज की परिस्थिति में ऐसा करेगा या फिर स्वीकार कर लेगा कि मैं तो शौकिया कविता लिखता हूँ - आजीविका के लिए मैं दूसरा काम करता हूँ।

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