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कला के लिए जरूरी है समर्पण- पं. जसराज

मुलाकात : शास्त्रीय संगीतज्ञ पंडित जसराज के साथ

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शशिप्रभा तिवारी
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दिल तक उसी की आवाज पहुँचती है, जो अपनी कला ईश्वर को समर्पित कर आत्मा से, दिल की गहराई और सही श्रद्धा से गाता-बजाता है। हम तो केवल आत्मा हैं, भगवान तो परमात्मा है। यह कथन है पंडित जसराज का।

पंडित जसराज ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को नई ऊँचाई बख्शी है। उन्होंने खयाल गायकी के साथ हवेली संगीत को नया आयाम दिया। जब वह 'गोविंदम्‌ गोकुलानंदम्‌ गोपालम्‌' या 'श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी' जैसी रचनाओं को गाते हैं तो आनंद का सागर उमड़ पड़ता है। श्रोताओं के आग्रह पर पंडित जसराज एक बार मंच प्रस्तुति खत्म कर, दोबारा भी गायन शुरू कर देते हैं। यह उनके कलाकार होने के साथ व्यक्तित्व का बड़प्पन है।

पंडित जसराज गायन को साधना मानते हैं। वह कहते हैं कि संगीत तो आनंद की चीज है। चाहे गाकर हम भगवान की आराधना करें या दर्शकों अथवा श्रोताओं के लिए गा लीजिए। अगर हम अकेले नहीं रहना चाहते तो संगीत एक आसान जरिया बन सकता है, लोगों को साथ लेकर चलने का। हर आदमी एक उम्र के बाद बुढ़ापे की ओर अग्रसर होता है। पर डॉक्टर, खिलाड़ी और कलाकार को तो जनता रिटायर कर देती है। हम तो रिटायरमेंट तक सीखने वालों में से हैं।

अपने आध्यात्मिक जीवन के बारे में वे बताते हैं कि भगवान तो निराकार ब्रह्म स्वरूप है। हमने उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप आकृति दी है। हमारे घर में कुलदेवी के रूप में चंडी की पूजा होती थी। धीरे-धीरे मैं हनुमान जी की पूजा करने लगा। 16 वर्ष की उम्र में हनुमान चालीसा, बजरंग बाण का नियमित पाठ करते हुए, रोजाना दो घंटे पूजा-पाठ में बिताता था। कृष्ण जी से मेरा परिचय संगीत से हुआ और उनके प्रति मन में विश्वास जागा।

पं. जसराज के अनुसार भगवान हर कलाकार से प्यार करते हैं। उन्होंने मुझे संगीतकार बनाया है तो मैं उनका गुणगान करता हूँ। जब मैं कहता हूँ कि हमारी सेवा को ग्रहण कीजिए, तब वह जरूर बैठते हैं। सबके साथ वह भी आनंद लेते हैं। यदि भगवान को बिना अह्वान किए गाता हूँ तो लगता है, वह किसी दरवाजे या खिड़की में से झाँककर सुन रहे हैं। दरअसल, शास्त्रीय संगीत जानकारी मात्र नहीं है। कला का हुनर केवल भगवान के आशीर्वाद से आता है। रियाजी कलाकार दो मिनट में कोई चमत्कार कर दिमाग को तो हिला सकते हैं, पर उनका सुर दिल तक पहुँचे, यह जरूरी नहीं।

पारंपरिक बंदिशों को गाने की परंपरा शास्त्रीय संगीत की पूर्णता है। इसलिए पंडित जसराज मानते हैं कि वे जो भी बंदिश या रचना गाते हैं, वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी बीते दिनों में थीं। जैसे बंदिश 'माता काली का महाकाल महारानी जगत जननी' में आतंकवाद में जी रहे हमारे देश का इससे मुक्ति की आवाज है। आतंकवाद के विनाश के लिए माँ काली से प्रार्थना की गई है। इस तरह की प्रार्थना की आज बहुत जरूरत महसूस होती है।

पंडित जसराज ने गायन में जुगलबंदी का नया प्रयोग किया। इसे उन्होंने जसरंगी नाम दिया। पहली बार पुणे में आयोजित समारोह में जसरंगी पेश की गई थी। जसरंगी के बारे में वे बताते हैं कि हवा-पानी, धरती-गगन, राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति सब दो अलग-अलग इकाई हैं। जब दोनों मिलते हैं तो पूर्णता आती है। ऐसे ही महिला-पुरुष स्वर एक साथ जुगलबंदी करें तो शायद पूर्णता आए। यह विचार मेरे मन में आया।

क्योंकि प्राचीन विद्वानों ने भारतीय संगीत के जिन मानदंडों को निर्धारित किया उसमें संगीत और श्रुति का आधार मधुरता को माना गया। दो अलग रागों के दो अंतराओं को गायक-गायिका संगतकारों के साथ अपने-अपने स्वर में एक साथ गाएं, यह जसरंगी की परिकल्पना है। दो राग और दो कलाकार सौहार्दपूर्ण संवाद करेंगे तो पूर्णता की प्राप्ति होती है। वैसे भी हमारा शास्त्र कहता है उत्तम गाना और मध्यम बजाना।

युवा कलाकारों को अपने संदेश में पंडित जसराज कहते हैं कि संगीत ऐसी विद्या है, जिसे पढ़कर नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए गुरु का मिलना सबसे पहली शर्त है। गुरु के आशीर्वाद से विद्या सीखें। यदि गुरु आशीर्वाद देते हैं तो यह शिष्य की प्रतिभा और शिक्षा को दस गुना बढ़ा देता है। हर गुरु को अपने शिष्य पर बहुत भरोसा होता है। शिष्य आगे बढ़ता है, तरक्की करता है तब गुरु की खुशी का ठिकाना नहीं रहता।

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