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मालवी की महक गायब हो रही है : नरहरि पटेल

लोक-रंगकर्मी नरहरि पटेल से अनौपचारिक संवाद

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मालवी, बुंदेली, निमाड़ी आदि लोक बोलियों के जनमानस से विस्मृत होने के प्रति चिंता प्रकट करते हुए सुप्रसिद्ध मालवी कवि नरहरि पटेल ने कहा कि बोलो तो बोली रहेगी जिंदा। उन्होंने कहा कि आज लोग घरों में भी अपनी बोली में नहीं बोलते। नई पीढ़ी के बच्चे अपनी बोली बोलने में सकुचाते हैं। गोष्ठियों में चिंताएँ करने से नहीं, व्यवहार में लाने से बोली रहेगी जिंदा।

मालवी बोली में सर्वाधिक प्रकाशित कवि, गजलकार, रंगकर्मी, ग़ज़लकार, रंगकर्मी नरहरि पटेल ने कहा कि लोक-कवियों के पास दर्शक नहीं हैं, लोक-कविताएँ अखबारों में छपना बंद हो चुकी हैं। हाँ, इन दिनों ब्लॉग एक जरिया बना है जिसके जरिए मालवी, बुंदेली, बघेली बोलियों की कविताएँ एक जनसमूह तक पहुँच रही हैं। युवा भी पढ़ने लगे हैं, अभी इलाहाबाद विवि में भी मेरी मालवी कविताएँ गई हैं। इसी प्रकार सभी जनसंचार माध्यमों को आगे आना होगा।

यहाँ तक की नाट्य जगत से बोलियाँ गायब हो रही हैं। मैं तो कहता हूँ मुझसे लिखवा लो, मैं गीत, कविता, पटकथा लिख दूँ। गीतों को धुन से सजा दूँ, मगर लोक बोलियों में नाटक हो। 'थोड़ी घणी' मालवी संग्रह से मालवी गजल यात्रा शुरू करने वाले पटेल की 'सिपरा के किनारे' और 'गुलमोरी धरती' मालवी गजल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

यही नहीं उन्होंने मालवी में दोहे भी रचे हैं। वे कहते हैं कि लोक बोली में बहुत ही सहजता से गजल कही जा सकती है। लोक बोली इतनी समृद्ध है, घर की महिलाएँ भी बैठे-बैठे कहावतें, गीत रच लेती हैं। लोक की अभिव्यक्ति अत्यंत सशक्त होती है। उसमें किसी भी विधा में रचने के लिए प्रचुर खाद-पानी होता है।

मालवी के ख्यातिलब्ध कवि नरहरि पटेल ने गुरुवार की शाम मालवी गीत, कविताएँ और गजलें सुनाकर मालवा की धरती की सोंधी महक हिन्दी भवन में बिखेर दी। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से आयोजित मालवी काव्य पाठ में श्री पटेल को सुनकर श्रोता गदगद हो गए और उनके सुनाने के अंदाज के कायल भी। गुलमोरी धरती मालवा को समर्पित मालवी गजल संग्रह 'गुलमोरी धरती' की कुछ गजलें पेश हैं-

इस गजल के माध्यम से डग-डग रोटी, पग-पग नीर वाली मालवी धरती का गुणगान किया गया है-

* म्हारी गुलमोरी धरती, गुल क्यारी धरती-प्यारी हे म्हारी जान
म्हारी चाँदी री धरती, सोना री धरती वाली हे म्हारी जान
थारा खेताँ में मोती उगे हे हंस उड़े असमान
कोंख तो थारी हे रतनारी जन्में हे भगवान
म्हारी जन्मारी धरती, पुण्यारी धरती-प्यारी हे म्हारी जान
म्हारी चाँदी री धरती सोना री धरती-वाली हे म्हारी जान।

भारत देश की मालवी बोली में वंदना कुछ यूँ की कवि ने -

* जो ई भाव हे सुरताल हे, जो ई गीत हे ने नई गान हे
जो ई गाम हे म्हारी आत्मा, ईको नाम हिन्दुस्तान हे
जो ई रिश्ता है रेशम जसा, फूलाँ का गुलदस्ता कसा
जो नी मँहके ई रिश्ता सगा, तो जो घर हे घर यो मसान हे
यो जो आब दाब यो रूप हे, चढ़ती उतरती धूप हे
गल जाएगा यो भायला गारा को एक मकान हे
या जो छाँव हे तो हे ओटला, धन धान हे तो हे ओसरा
जो ही पँछीड़ा तो हे घोंसला, नवा पंख हे तो उड़ान हे
या जो मन की एक किताब हे, खोटा खरा को हिसाब हे
जाँची पटेल लो चौपड़ा, खोटी खरी जो मीजान हे।

* प्रेम से पाकी जबान दई दूँगा
काटलो माथो बयान दई दूँगा
पर-कट्या घायला कबूतर ने
भायला ऊँची उड़ान दई दूँगा
खोयो हे कई कमायो कई
जोड़ ने बाकी मीजान दई दूँगा
खुल्लो हे घर मिलो जो मिल्लत से
विफरो तो काठो कमाड़ दई दूँगा
मरता मरता पटेल बोलेगा
आँधी ने दीवो जवान दई दूँगा।

अपने गाँव अपने घर-आँगन को याद करती यह गजल भी पेश हुई -

कसा चेहकता था चेरकला कई याद हे के नी याद हे
मस्ती में गम्मत रतजगा कई याद हे के नी याद है
दादी की मीठी लोरियाँ नानी की रेशम झोरियाँ
माँ की कसूमल थपकियाँ कई याद हे के नी याद हे
होली दिवाली थी कसी राखी पे मनवाराँ कसी
घूमर दिवासा ढुमकणा कई याद हे के नी याद हे
थानक पे माँगी थी मन्नताँ बस एक बालूड़ो दे माँ
माता की पूजा वंदना कई याद हे के नी याद हे
सूरज उगाता था कूकड़ा संजा सुलाती थी रूँखड़ा
राताँ का चमचम चूड़ला कई याद हे के नी याद हे।

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