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साहित्य के प्रति भरोसा खंडित न हो

प्रसिद्ध कथाकार-संपादक राजेन्द्र यादव से खास बातचीत

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- विनय उपाध्याय

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एक दौर था जब मध्यप्रदेश सरकार की सांस्कृतिक नीतियों को भारत भर में एक मॉडल की तरह स्वीकारा जाता था और आज हाल ये है कि यहाँ की सरकार कायदे के संस्कृतिकर्मी तक खोज नहीं पाई है। दरअसल भाजपा के पास कला और साहित्य की प्रगतिशील सोच रखने वाले लोगों का नितांत अभाव है, जो हैं वे अतीत के मोहजाल से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसे में यहाँ की सरकार से सांस्कृतिक भविष्यवाद की उम्मीदें करना बेमानी है।

प्रसिद्ध कथाकार और साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के संपादक श्री राजेन्द्र यादव ने यह बेबाक टिप्पणी एक खास मुलाकात में की। साहित्यिक समारोह में शिरकत करने भोपाल आए श्री यादव ने कहा-'राजनीति हर दौर में रही है। कालिदास का जमाना भी अछूता नहीं रहा, लेकिन साहित्य के प्रति समाज का भरोसा खंडित न हो यह कोशिश जरूरी है।

इसके लिए जरूरी है कि आस्थाओं के नाम पर देश भर में फैल रहे अंधविश्वास को जड़ता से दूर कर नए उन्मेष और नई चेतना का साहित्य रचा जाए। संकीर्णताएँ हर तरक्की में बाधा पैदा करती हैं।'
एक दौर था जब मध्यप्रदेश सरकार की सांस्कृतिक नीतियों को भारत भर में एक मॉडल की तरह स्वीकारा जाता था और आज हाल ये है कि यहाँ की सरकार कायदे के संस्कृतिकर्मी तक खोज नहीं पाई है।
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अपने विवादित बयानों से सदा सुर्खियों में रहने वाले इस निर्भीक आलोचक ने जनवादी और प्रगतिशील लेखक संघ के साहित्यिक आंदोलन को निष्प्रभावी बताते हुए कहा- इन संगठनों ने अपनी अधिकांश ऊर्जा गोष्ठी-सेमिनारों में खर्च की।

मार्क्सवाद के हिमायती श्री यादव ने कहा कि आर्थिक समृद्धि के इस वैश्विक युग में साहित्य की जगह कितनी बाकी है? अव्वल तो आज पूर्णकालिक लेखक गिनती के भी नहीं हैं। लेखन आज पार्टटाइम प्रोफेशन बन गया है। ऐसे में संपूर्ण रचनाकार विलोपित होते जा रहे हैं। ऐसे में साहित्यिक तेवर रचना में आहत हुए हैं।

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