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सोचता था अंग्रेज़ी में, लिखता था हिन्दी में..!

कथाकार तेजेन्द्र शर्मा से निर्मला भुराड़िया की मुलाकात

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कथाकार और ग़ज़लकार तेजेन्द्र शर्मा का विदेशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी नाम है। तेजेन्द्र जी न सिर्फ हिंदी में साहित्य रचना कर रहे हैं, बल्कि लंदन में रहकर कथा-यूके के माध्यम से हिंदी, उर्दू और पंजाबी साहित्य के प्रचार-प्रसार का कार्य भी कर रहे हैं। हिंदी के प्रचार के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों और विदेशों में रचे जा रहे साहित्य की प्रकृति और दिशा जैसे मुद्दों पर निर्मला भुराड़िया ने उनसे चर्चा की। प्रस्तुत है चर्चा के अंश:

निर्मलाजी - लेखक बनने का खयाल कैसे आया? सबसे पहले आपने क्या लिखा?
तेजेन्द्रजी - दरअसल लेखक बनने के बारे में सोचा नहीं जाता है। कला से जुड़े जो काम होते हैं वे प्रकृति प्रदत्त है, जो किसी न किसी स्टेज पर शुरू हो जाते है और फिर अचानक पता चलता है कि आपको कलम चलाने का शौक हो गया है, आपको कोई सिखाता नहीं है। मेरे केस में मामला थोड़ा अलग है। मेरे पिता उर्दु और पंजाबी में रचना करते थे, उपन्यास, ग़ज़लें और नज़्में लिखते थे। घर में माहौल था, वे मुझे सुनाया करते थे। बहुत बचपन से ही मैं उनका श्रोता था। धीरे-धीरे मेरे मन में भी कुछ बुनने लगा। इस तरह शायद लिखना शुरू हुआ होगा।

निर्मलाजी - आपकी पहली रचना कौन-सी थी?
तेजेन्द्रजी - शायद जब मैं 9 वीं में था तब पहली कविता और 10 वीं में पहली कहानी लिखी, दोनों अंग्रेजी में थी। मेरी सारी पढ़ाई अंग्रेजी में, दिल्ली विवि से अंग्रेजी में एमए किया। मेरी सोच की ज़बान अंग्रेजी थी। इसलिए पहला अक्षर अंग्रेजी में ही लिखा गया। मेरी पहली किताब लॉर्ड बायरन पर अंग्रेज़ी में 1977 में छपी थी और फिर 1978 में जॉन कीट्स पर।

निर्मलाजी - फिर हिंदी में लिखना कैसे शुरू किया?
तेजेन्द्रजी - पत्नी इंदु दिल्ली के आईपी कॉलेज से हिंदी में एम.ए. कर चुकी थीं। शादी के बाद पीएच.डी. शुरू की। डॉ. देवेश ठाकुर के अंडर में पीएच.डी. कर रही थीं। उनका विषय था हिन्दी के आधुनिकतम उपन्यासों की प्रवर्तियों का अनुशीलन। उनके शोध के लिए सभी पन्यास 1975 से 80 के बीच के थे। उन्होंने कहा कि आप भी हिंदी उपन्यास पढ़ें तो हम मिल कर डिस्कस करेंगे। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। हिंदी में उपन्यास पढ़ने का कोई बहुत ज्यादा अनुभव था नहीं ।

निर्मलाजी - पहली बार पढ़ रहे थे?
तेजेन्द्रजी - ऐसा नहीं है बचपन में थोड़े बहुत ख़ास किस्म के उपन्यास पढ़े थे, जैसे जासूसी टाइप के उपन्यास थे। लेकिन जल्दी ही पेरी मेसिन वगैरह ने उनकी जगह ले ली। हिंदी उपन्यास पीछे चले गए, लेकिन सीरियस साहित्य हिंदी में कभी पढ़ा नहीं। शायद भारती जी का गुनाहों का देवता पढ़ा था। जब इंदुजी ने मुझे पढ़ने के लिए कहा तो पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि मैं भी ऐसा लिख सकता हूँ। मैंने एक कहानी लिखी। बीए में मेरे एक लेक्चरर थे श्याम मोहन जुत्शी, वे अव दिवंगत हो चुके हैं, मुझे बहुत प्यार करते थे।

मैंने अपने संबंधों और उनके जीवन को लेकर एक 23-24 पेज की कहानी लिखी, प्रतिबिंब। इंदुजी ने पढ़ा और खूब हँसी। उन्होंने कहा कि ये क्या लिखा है? मैंने पूछा क्या हुआ? तो उन्होंने कहा कि आपकी समस्या यह है कि आप सोचते अंग्रेजी में हैं औऱ लिखते हिंदी में है। इसलिए आपका सेंटेंस स्ट्रक्चर अंग्रेजी का है और शब्द हिंदी और अंग्रेजी की खिचड़ी-सी है। ये तो कुछ बना नहीं।

निर्मलाजी - फिर इलाज क्या किया?
तेजेन्द्रजी - उन्होंने समझाया कि आप पंजाबी में सोचिए और हिंदी में लिखिए। पंजाबी मेरी मातृभाषा है। मैं अपने माता-पिता और रिश्तेदारों से पंजाबी में ही बात करता था। तो दोबारा उस कहानी को पंजाबी में सोचा और हिंदी में लिखा। फिर इंदुजी ने उस कहानी को 10-12 पेज में समेट दिया। हिन्दी में मेरी पहली विधिवत कहानी वही थी प्रतिबिम्ब जिसका प्रकाशन नवभारत टाइम्स में हुआ था, शायद 1979 या 1980 में।

निर्मलाजी - छपना तो प्रेरणा होती है, लेकिन इसके अतिरिक्त और प्रेरणा क्या रही? कोई भावनात्मक प्रेरणा...?
तेजेन्द्रजी - जैसा कि मैंने पहले बताया कि घर का माहौल तो था ही। दूसरा मैं एयर इंडिया में फ्लाइट परसर था। वहाँ से जो दुनिया दिखाई देती थी, वो बहुत विचित्र थी। मैं फ़ाइव स्टार होटलों में रहता था और गल्फ़ की फ्लाइट्स पर भारत के मज़दूरों को ले जाता था। मैं उन मज़दूरों की हालत देखता था। कुवैत पर इराक का आक्रमण हुआ, उस सबको व्यक्तिगत रूप से देखा और महसूस किया है। उस दौरान वहाँ से भागते भारतीयों को मैंने करीब से देखा था। मेरी दुनिया एक अलग दुनिया थी

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निर्मलाजी - आपका आम आदमी दूसरों के आम आदमी से अलग था? आपके अनुभव अलग है, ऐसा लगता है आपको?
तेजेन्द्रजी - हाँ, मैंने एक बार यादव जी, (राजेंद्र यादव) से कहा कि यदि मैं मज़दूर और किसान पर लिखूँगा तो झूठ लिखूँगा। क्योंकि मैं भारतीय मज़दूर और किसान को नहीं जानता, लेकिन यदि मैं विमान को जानता हूँ, तो मैं उसी पर लिखूँगा। सिर्फ़ इसलिए कि आलोचकों को विमान के बारे में कुछ नहीं पता हो मैं उस पर नहीं लिखूँ, ये तो कोई बात नहीं है। मेरी दूसरी ही कहानी एक एयर होस्टेस की जिंदगी पर आधारित थी, उड़ान। इसे देवेश ठाकुर ने 1982 की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में शामिल किया। किसी लेखक की दूसरी ही कहानी श्रेष्ठ कही जाए तो बहुत आत्मविश्वास बढ़ता है।

इसे मैंने स्ट्रीम ऑफ कॉंशसनेस की टैक्निक इस्तेमाल की, उन दिनों जेम्स जॉयस का काफी असर था उनकी यूलिसिस और ए पोट्रेट ऑफ द आर्टिस्ट एज़ ए यंग मैन को पढ़ा था। तो उस टैक्निक का उड़ान में इस्तेमाल किया था। छपी कहानी देखकर तो आत्मविश्वास आता ही है। फिर सम्मानित भी हुई तो हौसला और भी बढ़ा।

निर्मलाजी - कथा यूके क्या है? इसके माध्यम से काफी काम कर रहे हैं? ये क्या योजना है आपकी?
तेजेन्द्रजी -कथा यूके एक ऐसी संस्था है जो ब्रिटेन में हिन्दी को एक अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है। इसकी स्थापना संभावनाशील कवियत्री एवं कहानीकार इंदु शर्मा की याद में की गई। इंदुजी ने मुझे कहानी लिखनी सिखाई। उनकी 1995 में कैंसर से मौत हो गई। तो उनकी याद में इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया जाने लगा। पहले पाँच सम्मान मुम्बई में हुए, क्योंकि मैं वहीं था। फिर मैं लंदन चला गया तो सम्मान वहाँ पहुँच गया।

कथा यूके के माध्यम से हम हर साल हाउस ऑफ लार्डस या कॉमंस यानी ब्रिटिश संसद में हिंदी सम्मान समारोह आयोजित करते हैं। लेखक को बाक़ायदा बुलाते हैं, एक हफ़्ता वहाँ रखते है, वहाँ की महत्वपूर्ण जगहें दिखाते हैं जैसे शेक्सपीयर का घर, कीट्स का घर, मार्क्स की समाधी, लंदन टावर आदि। वहाँ के लेखकों से इंटरेक्ट करने का मौका देते हैं। ये लेखक हिंदी, उर्दू और पंजाबी भाषाओं के होते हैं। भारतीय साहित्य को एक नया प्लेटफ़ॉर्म देने का मौका देते हैं।

हम ब्रिटेन में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को भी मंच प्रदान करते हैं और पद्मानंद साहित्य सम्मान से सम्मानित करते हैं। हमने कथा साहित्य एवं कविताओं पर आधारित बहुत से संकलन प्रकाशित करवाए हैं।

निर्मलाजी - प्रवासी भारतीय साहित्य को आप कैसे परिभाषित करते हैं?
तेजेन्द्रजी - इस टर्म को मैं ज़्यादा समझ नहीं पाया। क्योंकि अगर ब्रिटेन, अमेरिका, मॉरीशस, फ़िजी सूरीनाम या फिर खाड़ी देशों में लिखे जा रहे संपूर्ण साहित्य को प्रवासी साहित्य कहा जा सकता है तो ये कैसे संभव है? भला ब्रिटेन और मॉरीशस के लेखकों के सरोकार एक कैसे हो सकते हैं?

दोनों इतने अलग देश है, फिजी इतना अलग देश है, कि अगर इन सभी देशों के लेखक एक ही चीज लिख रहे हैं तो वह साहित्य पढ़ने लायक नहीं उसे समुद्र में फेंक दिया जाना चाहिए। क्योंकि अगर जहाँ हम रह रहे हैं उस देश उस समाज के सरोकार हमारे साहित्य में नहीं आ रहे हैं और हम केवल भारत के बारे में लिख रहे हैं तो हम सिर्फ नॉस्टेल्जिया लिख रहे हैं।

... एक सवाल मेरे मन में लगातार उठता रहा है कि प्रवासी साहित्य सिर्फ हिंदी में ही क्यों होता है? अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। भारत में अंग्रेज़ी साहित्य बहुत लिखा गया, लेकिन उसे प्रवासी साहित्य नहीं कहा जाता है।

ब्रिटेन ने तो पूरी दुनिया में राज किया, भारत में अंग्रेज़ी साहित्य बहुत लिखा गया, इसे सिर्फ इंग्लिश लिट्रेचर ही कहा। क्या आपने कभी सुना है प्रवासी डच साहित्य या प्रवासी जर्मन साहित्य? वे इसे अंग्रेज़ी लिट्रेचर ही कहते हैं, उन्होंने उसे मुख्य धारा का हिस्सा बनाए रखा।

दरअसल यह जो रिजर्वेशन्स पॉलिसी है वही गलत है, षड़यंत्र है, महिला लेखन या दलित लेखन, प्रवासी लेखन ये गलत है। मतलब साहित्य को खानों में नहीं बाँटा जाना चाहिए।

निर्मलाजी - क्या आप कथा यूके के माध्यम से इस सारे साहित्य को जोड़ना चाहेंगे। आपकी योजनाएँ क्या है?
तेजेन्द्रजी - हम कथा-गोष्ठियाँ करते हैं। वहाँ कहानी और पाठक होता है, उस पर उसी वक्त कमेंट होता है। इसमें थोड़ा बदलाव किया गया है। गोष्ठी में एक कहानी हिंदी की और एक उर्दू की पढ़वाई जाती है। फिर अगली बार एक हिंदी की और एक पंजाबी कहानी होती है। हमारा उद्देश्य है कि कहानीकारों को अपनी रचना पर तुरंत प्रतिक्रिया मिले जो की सच्ची हो। हमारा अगला कार्यक्रम है कि हम अपनी गोष्ठियों में भारत में लिखी जा रही स्तरीय कहानियों का पाठ किया जाए। इस तरह ब्रिटेन में बसे हिन्दी लेखकों का परिचय स्तरीय कथा साहित्य से हो पाएगा। इन कार्यक्रमों में हमें अब एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स का पूरा सहयोग मिल रहा है।

निर्मलाजी - स्लमडॉग मिलिनेयर जो फिल्म है, जिसे इंटरनेशनल फेम मिली है। उपन्यास लेखन में आपका योगदान रहा है। उपन्यास लेखक विकास स्वरूप है, इसमें आपका किस तरह योगदान रहा है?
तेजेन्द्रजी - विकास स्वरूप मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं औऱ बहुत अच्छे इंसान भी हैं। लंदन में हाई कमीशन में उनसे दोस्ती हुई। उनके दिमाग़ में वो कहानी थी। हुआ यह था कि लंदन में एक कार्यक्रम आता है हू वुड बी ए मिलिनेयर। उसमें आर्मी के एक मेजर कंटेस्टेंट थे, वहाँ एक व्यक्ति खाँसता था, मान लीजिए उत्तर सी है तो वह तीन बार खाँसता था। (क्लू देने के लिए) तो वह पकड़ा गया और उसे मिलियन मिले नहीं। विकास के दिमाग में ये बात थी कि इसे भारतीय परिवेश में रखकर कुछ लिखा जाए। उसी समय भारत में भी अमिताभ बच्चन का कौन बनेगा करोड़पति शुरू हुआ।

उन्होंने ये विचार मुझे बताया, मैंने उन्हें कहा कि वे कुछ लिखकर बताए तभी मैं बता पाऊँगा कि यह कुछ बन पाएगा या नहीं। उन्होंने कुछ लिखकर बताया। तब मैंने उन्हें कहा कि यह साहित्यिक कृति बने या न बने लेकिन बैस्ट सैलर बनने के सभी मसाले इसमें मौजूद हैं।

निर्मलाजी - इतनी सफलता का अंदाजा था?
तेजेन्द्रजी - उपन्यास को बहुत सक्सेस मिली। उपन्यास का नाम था क्यू एंड ए। लंदन के नेहरू सेंटर में लांच के दौरान ही 100-125 किताबें बिक गई थी। यहाँ मुंबई में भी किताब का साइनिंग था, जहाँ विकास ने उपन्यास साइन करके दिया। यहाँ भी बहुत सक्सेस मिली। लेकिन ये सच है कि फिल्म ने नॉवेल को री-डिस्कवर किया। लोगों को फिर से पता चला कि यह एक उपन्यास भी है। फिर इस उपन्यास को पब्लिशर ने नाम बदल कर स्लमडॉग मिलिनेयर किया फिर से पब्लिश किया औऱ वो हॉट-केक्स की तरह बिक रहा है। मुझे खुशी है कि इस उपन्यास के शुरुआती दौर का मैं भी हिस्सा हूँ। क्योंकि उस समय बाकायदा डिस्कस किया करते थे कि इसको कैसे आगे बढाएँगें। मैं इसका श्रेय नहीं ले रहा हूँ। फिर भी शुरुआती दौर में इसका हिस्सा होने की मुझे खुशी है।

निर्मलाजी - इसके अतिरिक्त शांति सीरियल लेखन का भी आप हिस्सा रहे हैं! किसी पैनल के साथ लिखते थे या स्वतंत्र रूप से?
तेजेन्द्रजी - एक स्टोरी राइटर था। जिसके पास केवल अढ़ाई लाइन का आइडिया था। मगर इस सीरियल के 758 एपिसोड्स बने थे। भारत का पहला डेली सोप था। समीर कहानी लेखक थे, वो कहानी लाइन को आगे बढ़ाते थे और हम तीन एपिसोड्स राइटर्स थे, हम लोग अंडरस्टेंडिग रखते थे कि इस तरह से लिखे कि कहीं ऐसा न हो कि एक एपिसोड लिटरेरी हो जाए और दूसरा फिल्मी हो जाए। मैं थोड़ा बाद में जुड़ा। जब निर्माता किसी साहित्यकार को अपने साथ जोड़ना चाहते थे, वहाँ कुछ कोर्ट सीन्स थे, वे फिल्मी नहीं थे, मैं उनका विशेषज्ञ माना जाता था। एक वकील जो कि बीआर चोपड़ा के साथ कानून के दिनों से कनेक्टेड थे मैंने उनसे सीखा कि कोर्ट में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाए?

मैंने कोशिश कर ऐसे कोर्ट सीन्स लिखे, कि उनकी भाषा फिल्मी न हो। यहाँ एक दिक्कत ये थी कि मैं एयर इंडिया में नौकरी करता था, तो सीन लिखकर मैं तो चला जाता था कनाडा और यहाँ शूटिंग हुआ करती थी, तो मेरा वो कंट्रोल नहीं था कि मैं डायरेक्टर के साथ बैठकर कलाकारों को कुछ बता पाता। जब मैं यहाँ होता था कि तो शूटिंग पर जाता था। मैं भी हिंदी का पार्ट टाइम लेखक था। मेरी नौकरी मुझे विदेश ले जाती थी, तो मैं वहाँ शॉपिंग करने की बजाए एपिसोड्स लिखता था।

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निर्मलाजी - इससे एक बात औऱ निकल कर आती है कि आमतौर पर ये माना जाता है कि हिंदी लेखक रिसर्च नहीं करते हैं? नए लेखकों ने रिसर्च करना शुरू किया है। आपकी रचना प्रक्रिया में कितने असली लोग होते हैं? कितना रिसर्च होता है, कितनी कल्पना है?
तेजेन्द्रजी - मैं सारी चीजें मिला कर काम करता हूँ, जैसे मेरी कहानी है कब्र का मुनाफ़ा। अब मुझे कहानी लिखने का आइडिया मिला कि मेरे एक परिचित ने अपनी पत्नी को जन्मदिन पर एक क़ब्र गिफ़्ट की। बड़ा विचित्र गिफ़्ट है, लेकिन उसका कहना है कि हम अमीर लोग है तो हमारी डेड बॉडी भी एक फाइव स्टार कब्रिस्तान में दफ़न हो। उन्हीं दिनों एक एडवरटाइजमेंट का पैम्फ्लेट मिला। मुर्दे का मेकअप... इसमें ये बताया गया था कि यदि आप इन प्रोडक्ट से मुर्दे का मेकअप करेंगे तो मुर्दा खूबसूरत और जवान लगने लगेगा। यहाँ फ्यूनरल डायरेक्टर्स होते हैं, वेस्ट में मरना भी एक्सपेंसिव होता है, रोल्स रॉयस कार चाहिए। ये पूरा ऑर्गेनाइज़्ड सिस्टम है।

ये देखते हैं कि यदि किसी की जलने से या फिर एक्सीडेंट में विकृत हो कर मौत हो जाए तो फ़्यूनरल डायरेक्टर्स उसका इस तरह से मेकअप करेंगे कि वो खूबसूरत लगे। मतलब जलाने या फिर दफ्न करने से पहले मेकअप कर दें ताकि आखिरी बार की याद खूबसूरत हो।

मैंने मौत को एक खिलंदड़े अंदाज़ में समझने और लिखने की कोशिश की। एक तरह का भौतिकवाद है जो मौत के दौरान भी कायम रहता है, दूसरे ये भी कि मौत को किस तरह से धंधा बना दिया। इसके लिए मुझे रिसर्च करना पड़ा। क्योंकि जानना चाहता था कि क्या सच में कब्रें बुक होती है, वो किस रेट में होती है, बीच में इस्तेमाल न हो तो वापस होती है या नहीं, तो लौटाने पर किस रेट पर वापस होती है? कौन-सा कब्रिस्तान फाइव स्टार है? कंपनी किस तरह का मेकअप का सामान बनाते है। फ्यूनरल डायरेक्टर्स से भी बात की। कि आप किस तरह से मेकअप करते हैं?

निर्मलाजी - मतलब कहानी तथ्यों पर पक्की होनी चाहिए।
तेजेन्द्रजी - मतलब ये है कि एक तो होता है सच, और दूसरा होता है सच का सच्चा लगना। मेरी कोशिश ये रहती है कि मैं सिर्फ वीभत्स सच न बताऊँ। बल्कि सच को कल्पना शक्ति से जोड़ कर विश्वसनीय बना दूँ।

निर्मलाजी - आपकी रचना प्रक्रिया कैसी होती है? आप हाथ से लिखते हैं या फिर कम्प्यूटर पर...? लेखकों की कई तरह की सनक भी होती है...?
तेजेन्द्रजी - रचना प्रक्रिया हर कहानी की अलग होती है। कोई कहानी एक सिटिंग में पूरी हो जाती है तो कोई कोई महीनों सालों घिसटती रहती है। जब मैंने लिखना शुरू किया तब कंप्यूटर नहीं होते थे। हिंदी हाथ से लिखने का अभ्यास नहीं था। बड़े-बड़े अक्षर लिखता था और लाइन खींचता था। कहानी के साथ-साथ मेरी हैंडराइटिंग भी विकसित होती गई। जैसे-जैसे कहानी विकसित हुई, शब्दों के ऊपर की लाइन गुल हो गई, बाद में गुजराती की तरह हिन्दी लिखने लगा। जब कम्प्यूटर आए तो सबसे पहले कम्प्यूटर पर हिंदी सीखी और पिछले 11-12 साल से कम्प्यूटर पर सीधे लिखने लगा हूँ।

निर्मलाजी - प्रवासी साहित्य में भी नई पीढ़ी तो हिंदी में साहित्य रचना करती नहीं है? क्या आपकी जानकारी में ऐसा कोई साहित्यकार है जो हिंदी में काम कर रहा हो?
तेजेन्द्रजी -मुम्बई और लंदन में एक चीज कॉमन है, दोनों ही जगह हिंदी का एक भी लेखक ऐसा नहीं है जिसका जन्म वहाँ हुआ हो। मुंबई में सब के सब या तो दिल्ली से, यूपी से या फिर पंजाब से आए हैं। ठीक उसी तरह वेस्ट में भी जितने हिंदी के लेखक है वे वहीं जन्मे नहीं है। विदेशों में हिन्दी साहित्यकार पहली पीढ़ी के प्रवासी है। सबका नॉस्टेल्जिया जिंदा रहता है। वे पश्चिम की समस्याओं से, जड़ों से जुड़ नहीं पाते हैं। जब भी कलम उठाते हैं, तो इंस्पीरेशन के लिए भारत चले आते हैं।

मैंने एक मुहिम चलाई थी कि हम जो विदेश में बैठकर हिंदी लेखक है, हमारे विषय भारतीय लेखकों से अलग होने चाहिए, यहाँ सैटल होने के लिए किए गए स्ट्रगल, दूसरी पीढ़ी को अपना कल्चर देने के बारे में या जो कल्चरल ह्रास हो रहा है, उस पर लिखे। वे कहते हैं कि स्ट्रगल पर लिखे। जब हम आलू भी अंग्रेज़ी में खरीदते हैं तो फिर हिंदी क्यों पढ़े?

दूसरी पीढ़ी हिंदी से संबंध नहीं रखते हैं, इमोशनल लेवल पर वे इसके लिए तैयार नहीं है इस तरह की सारी समस्या हमारे लेखन में आनी चाहिए। आप तो कहानी लिखते हैं तो आपके लिए आसान है। लेकिन कविता में कैसे लिखे। तो मैंने उन्हें बाक़ायदा कविता लिखकर दिखाई।

निर्मलाजी - मतलब आप लंदन के आम आदमी पर कलम चलाना पसंद करते हैं?
तेजेन्द्रजी - लंदन सैटल होने के बाद की मेरी कहानियां एवं ग़ज़लें देखें तो आपका परिचय एक अलग किस्म के आम आदमी से होगा। वैसे मेरा आम आदमी तो हमेशा ही अलग रहा है। कभी वो कुवैत का होता है, तो कभी वो जापान का होता है। जैसा कि मैंने एक कहानी लिखी थी देह की कीमत । इस कहानी में भारत का एक लड़का इल-लीगल तरीक़े से जापान जाकर काम करता है, जहां उसकी मौत हो जाती है।

अब लाश लावारिस हो जाती है, क्योंकि जो भी पहचानेगा वो पकड़ा जाता है। सारे ही दोस्त उस इल-लीगल सिस्टम से यहाँ आए। एक अच्छे भले घर का लड़का लावारिस लाश हो जाता है। फिर लोग उसके लिए पैसा इकट्टा करते है तो उस पैसे को पाने के लिए उसके परिवार के सदस्य कितनी हद तक गिर जाते हैं। इसीलिए विषय वो है जो मैं देखता हूँ।

निर्मलाजी - क्या चरित्र आपके साथ रहते हैं?
तेजेन्द्रजी - इसी कहानी के बारे में बताता हूँ। मेरा एक मित्र था जो जापान हाई कमिशन में पोस्टेड था। एकाएक वो मुझे फ़्लाइट में मिला। उसने डेढ़ लाइन की कहानी सुनाई कि एक सरदार लड़के की जापान में मौत हो गई और उसके पैसे को भारत भेजना था तो परिवार में बड़ी लड़ाइयाँ हो रही है कि उसका पैसा किसे मिलेगा।

वो तो सुनाकर चला गया, लेकिन मैं बड़ा बेचैन हो गया। मैं सोचता रहा कि इसकी कहानी किस तरह लिखूँ. तो मेरे जीवन में जितने सरदार परिवार आये थे मैं उनमें से कैरेक्टर खोजने लगा जैसे मेरे एक टीचर थे ज्योमेट्रिकल मैकेनिकल ड्राइंग पढ़ाते थे मैंने उनके बोलने के अंदाज़ को दारजी का बोलने का अंदाज़ बनाया। मेरा एक दोस्त है हरदीप को उसे मैंने मुख्य कैरेक्टर बनाया। उनमें से किसी के भी साथ ये सब कुछ नहीं बीता।

निर्मलाजी - फिर आपके संवाद शुद्ध हिंदी के नहीं होते होंगे?
तेजेन्द्रजी - मेरी कहानियों में पंजाबियत होती है। यदि कैरेक्टर पंजाबी होते हैं तो फिर संवाद भी पंजाबी में होते हैं। क्योंकि परिवेश भी पंजाबी होता ही है। केवल शब्द नहीं, थॉट प्रोसेस भी। पंजाबियों के सोचने का तरीका अलग होता है। तो मैं कोशिश करता हूँ कि वो उभर कर आए। यदि हम साहित्य को गतिमान बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि पिछला भी पढ़ते रहना पड़ेगा और जोड़ते रहना होगा। ठीक इसी तरह जब विशुद्ध गोरे पात्र होते हैं तो उनके सोचने का अंदाज़ भी वैसा ही हो जाता है।

निर्मलाजी - हिंदी में पढ़ना जरूरी है?
तेजेन्द्रजी - सिर्फ हिन्दी नहीं, अन्य भाषाओं में पढ़ना जरूरी है। ट्रांसलेशन भी पढ़ना चाहिए। जैसा कि सूरज प्रकाश ने चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा का हिंदी में अनुवाद किया। जैसे धर्म के पैगंबर होते है, उसी तरह साहित्य के, विज्ञान के भी पैगंबर होते हैं। तो डार्विन भी एक पैगंबर है, न्यूटन भी, क्योंकि उन्होंने हमें वो बताया जो हमें पहले से पता नहीं था।

यही तो धार्मिक पैगंबर करते है, जो चीज हमें पता नहीं, वो हमें बताते हैं। मार्क्स को भारतीय लेखकों को मूल भाषा में तो नहीं पढ़ा। सबने अनुवाद के माध्यम से पढ़ा है। मतलब अनुवाद के माध्यम से हमें पंजाबी, उड़िया और दूसरी भाषाओं को पढ़ना चाहिए। जब तक हम पढ़ेंगे नहीं तब तक हम समझ नहीं पाएँगें कि आज क्या हो रहा है?

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