अब नेट पर होगा 'हिन्दी समय डॉट कॉम'
हिन्दी साहित्य के एक लाख पन्ने नेट पर !
अन्य भाषाओं और खासतौर पर अँगरेजी साहित्य के मुकाबले हिन्दी साहित्य आज भी नेट पर कम ही उपलब्ध है। अब इस कमी को दूर करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से एक सार्थक कदम उठाया जा रहा है, जो भविष्य में मात्र एक लाख पन्नों पर जाकर नहीं रुकेगा। हम उम्मीद करें कि जल्द ही हिन्दी साहित्य प्रेमी जब जी चाहे अपनी पसंद के हिन्दी लेखक को भी आसानी से नेट पर पढ़ पाएँगे।
पाँच करोड़ रुपएकी इस योजना में एक वेबसाइट का निर्माणहोगा, जिसके लिएमहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से सहायता मिलेगी। इस साइट का नाम है 'हिन्दी समय डॉट कॉम।' इसकी जानकारी हाल ही में कुलपति विभूतिनारायण राय ने दी थी। अब जबकि ऐसा माना जा रहा है कि हिन्दी साहित्य और पाठकों के बीच दूरियाँ लगातार बढ़ रही हैं, तब इस योजना की उपयोगिता और सार्थकता क्या है?
इन्हीं कुछ सवालों के प्रकाश में स्थानीय साहित्यकारों से बातचीत की।
दस्तावेजीकरण के लिए महत्वपूर्ण : हिन्दी के ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले का कहना है कि भविष्य के लिए हिन्दी साहित्य के दस्तावेजीकरण के लिहाज से यह योजना महत्वपूर्ण हो सकती है। यह वेबसाइट एक तरह से साहित्य का काल-यंत्र होगी। हकीकत तो यह है कि वैश्वीकरण और साहित्य एक-दूसरे के विरोधी हैं।
अब जबकि किताबों और पुस्तक प्रेमियों में आत्मीय संबंध लगभग छीजते जा रहे हैं, पढ़ने-पढ़ाने के व्यवसाय में साहित्य नगण्य है और साहित्य को जीवन से नहीं जोड़ा जा सका है, साक्षरता का परिदृश्य दयनीय है, तब हिन्दी साहित्य की इस वेबसाइट की यह योजना संदेहास्पद है। हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि यह योजना सिर्फ हिन्दी तक ही सीमित क्यों है? इस विश्वविद्यालय को तमाम भारतीय भाषाओं को लेकर काम करना चाहिए।
इससे अच्छी योजना हो नहीं सकती : क्या साहित्य और टेक्नॉलॉजी के बीच बनते नए संबंधों के मद्देनजर यह कुछ कारगर साबित होगी? उपन्यासकार कृष्णा अग्निहोत्री का मानना है कि यह अच्छी योजना है, क्योंकि अब नेट यूजर्स बढ़ रहे हैं और नेट पर साहित्य पढ़ने की आदत भी धीरे-धीरे बढ़ रही है। इसलिए नेट यूजर्स तक हिन्दी साहित्य की पहुँच की दृष्टि से इससे अच्छी योजना हो नहीं सकती।
सीमित दायरे में सिमट जाएगी : उपन्यासकार कृष्णा अग्निहोत्री की बात से इत्तफाक न रखते हुए साहित्यकार जवाहर चौधरी कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि जब पुस्तकें सहज ही उपलब्ध हैं, उन्हें ज्यादा आरामदायक और सहज तरीके से पढ़ने के कई तरीके हैं तब नैट पर साहित्य पढ़ना मुझे असहज लगता है। पहली बात तो यह है कि आज कितने नेट यूजर्स ऑनलाइन साहित्य पढ़ना चाहेंगे? फिर बिजली और कनेक्टिविटी की समस्या है। ऐसे में यह योजना सीमित दायरे में ही रह जाएगी।
हिन्दी के प्रचार का आधुनिक आयाम : ललित निबंधकार नर्मदाप्रसाद उपाध्याय इस योजना को एक सकारात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं। उनका मानना है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार का यह एक आधुनिक आयाम है। इससे विदेशों में रहने वाले हिन्दी प्रेमी पाठकों को बहुत लाभ मिलेगा। इसलिए यह स्वागत योग्य योजना है।
बोलियों का साहित्य भी हो : उपन्यासकार शरद पगारे तो कहते हैं कि इस वेबसाइट के लिए यह बेहद जरूरी है कि यह निष्पक्ष रूप से तैयार की जाए। यानी इसकी सामग्री को किसी भी तरह की गुटबाजी या खास तरह की पसंद-नापसंद से अलग रखा जाए तभी यह सार्थक हो सकेगी। चूँकि यह वेबसाइट एक तरह से हिन्दी साहित्य का ऐतिहासिक दस्तावेज होगी तो इसमें बोलियों के साहित्य को भी शामिल किया जाना चाहिए और इस वेबसाइट के लिए पहले सर्वे भी होना चाहिए।
चुनिंदा साहित्यकारों को लें : कहानीकार सूर्यकांत नागर का यह कहना है कि साहित्य के एक लाख पन्नों से चौंकाने की बजाय तो इसमें बहुत ही चुनिंदा साहित्यकारों को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि एक तो पढ़े-लिखे लोगों में ही नेट पर साहित्य पढ़ने की आदत नहीं है। फिर जो नेट यूजर्स हैं वे कितनी दिलचस्पी दिखाएँगे यह भी एक सवाल है। यह विवि तो हमेशा विवादों में रहा है, देखना है कि इस योजना का कितना स्थायी फायदा मिलता है।
उपयोगिता, सार्थकता संदिग्ध : अब जबकि लोगों की प्राथमिकताएँ बदल गई हैं तब यह वेबसाइट कितने लोगों को आकर्षित कर सकेगी? इस सवाल के जवाब में कवि राजकुमार कुंभज कहते हैं कि यह एक तथ्य है कि जिनमें साहित्य को पढ़ने की भूख है, उनके पास नेट की सुविधा नहीं है और जिनके पास नेट की सुविधा है, उनकी दिलचस्पियाँ दूसरे विषयों में हैं। इस नजर से देखें तो इस वेबसाइट की उपयोगिता और सार्थकता संदिग्ध लगती है। (चित्र सौजन्य : मगाँअंविवि, वर्धा)