- विनय उपाध्याय
व्यास सम्मान के लिए चयनित साहित्यकार डॉ. रमेशचंद्र शाह से बातचीत
'मुझे नहीं लगता कि मैं अपनी यात्रा के अंतिम चरण में पहुंच गया हूं। कुछ सवाल अभी भी भीतर तैर रहे हैं और मैं उनके उत्तर तलाश रहा हूं। शायद कोई और साधना भी जरूरी होती है साहित्य के अलावा, जिसमें जीवन की गांठ खुल सकती हो। लगभग चालीस साल की साहित्य साधना के बावजूद दावा नहीं कर सकता कि जीवन नाम की पहेली को मैं सुलझा पाया हूं।'
लेखकीय दंभ को दरकिनार करती यह विनम्र टिप्पणी सुप्रतिष्ठित कवि, कथाकार तथा आलोचक डॉ. रमेशचंद्र शाह की है। हाल ही उनकी चर्चित समीक्षा पुस्तक 'आलोचना का पक्ष' के लिए के.के. बिड़ला फाउंडेशन की ओर से ढाई लाख रुपए के व्यास सम्मान की घोषणा की गई है। अपने समय के चुनौतीपूर्ण प्रश्नों को लेकर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले डॉ. शाह, व्यास सम्मान को एक संयोग ही मानते हैं। विशेष चर्चा के दौरान श्री शाह ने अपनी सृजन-यात्रा और समकालीन साहित्य के परिदृश्य से जुड़े मुद्दों पर खरी प्रतिक्रियाएंं व्यक्त कीं। अल्मोड़ा (उत्तरप्रदेश) में जन्मे चौसठ वर्षीय डॉ. शाह लगभग पैंतीस वर्ष अंंगरेजी के प्राध्यापक बतौर भोपाल में अपनी शासकीय सेवाएं देने के बाद अब स्वतंत्र चेता लेखन में व्यस्त हैं।
शाह साहब ने बताया कि परिवार में साहित्य लेखन की कोई परंपरा या रूझान न होने के बावजूद मेरे भीतर साहित्यिक- संवेदनाएंपनपीं। तब परिवेश हालांकि बहुत उत्सवधर्मी था। अपने आसपास का जीवन साहित्य में प्रतिबिंबित होता दिखाई देता था। उन्होंने बताया कि एक निबंध 'राजा भोज का सपना' पढ़कर वे जबर्दस्त उत्साहित हुए। किशोर उम्र में साहित्य के इन संस्कारों की छाया जो पड़ी, वह आज तक छाई है।
साहित्य में किसी विचारधारा विशेष के आग्रह को 'मूर्खता' करार देने वाले डॉ. शाह कहते हैं- 'साहित्य संपूर्णता में जीवन को देखता है। सारे गुण-अवगुणों सहित। पूर्वाग्रहों के चलते रचना कैसे सत्य का प्रतिपादन करेगी?' शाह साहब ने कहा कि रचनाकार ये मांग नहीं करसकता कि एक सुंदर और सुगठित समाज ही उसे मिले तभी वह साहित्य रचेगा। जीवन में कुरूपताएं-विषमताएं सदा से रही हैं। सिर्फ उनका रूप बदलता है, संघर्ष का क्षेत्र बदलता है। साहित्यकार तो उसकी बेहतरी के लिए अपने सत्य, सौंदर्य और स्वप्न को साकार करने की चेष्टा करता है।
वर्तमान साहित्यिक परिवेश आपको कैसा लगता है? प्रश्न पर दो टूक शब्दों में इस अग्रज साहित्यकार की प्रतिक्रिया सामने आती है। वे कहते हैं- 'बड़ी गड़बड़ियां हैं। नए लेखक का शुरू में ही घेराव कर लिया जाता है। उसे 'जलेस' या 'प्रलेस' में भर्ती करने की मुहिम शुरू हो जाती है। लेखक एक खास किस्म की आइडियोलॉजी में, एक जकड़न में बंध जाता है।' डॉ. शाह ने कहा कि लेखक के लिए स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य होता है। साहित्य हर आइडियोलॉजी से बड़ी चीज है। आज जो गुटबंदियां साहित्य में फैल रही हैं, वे नुकसानदेह हैं। बौद्धिकधड़ा फैलाने का जो घटिया व्यापार इन दिनों चल रहा है उसने साहित्य की गुणवत्ता को प्रभावित किया है।
सन् 1987-88 में म.प्र. शासन के शिखर सम्मान से विभूषित डॉ. शाह की लगभग दो दर्जन कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें कविता, उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक और समीक्षाएं शामिल हैं।
अपनी संवेदना के विराट फलक तथा विधाओं की विविधता में उनका उद्घाटन डॉ. शाह चेतना के अलग-अलग आयामों से जोड़ते हैं। उनकी मान्यता है कि यथार्थ बोध का कोई आयाम कविता में तो कोई कथा में भली तरह रूपायित होता है। कभी कोई बौद्धिक बेचैनी आलोचना की ओर भी ले जाती है। श्री शाह इस प्रवाह में जोड़ते हैं कि मेरी कविताएं जाहिरतौर पर राजनीतिक नहीं होती हैं लेकिन मैंने इमरजेंसी में 'हरिशचंद्र आओ ना' कविता भी लिखी जिसमें राजनीतिक विरोध का स्वर है। मेरे यथार्थ का सरोकार सत्य से हमेशा रहा है। मैं फिर दोहराऊंगा कि किसी निर्देश या ढांचे में बंधकर रचना नहीं हो सकती।
डॉ. शाह बताते हैं कि उन्हें अपने साहित्यिक जीवन में द्रोह भी मिला, नफरत भी मिली, अन्याय भी झेलना पड़ा, पर अब लगता है यह सब जीवन को समझने के लिए लाभकारी रहा। विरुद्ध और विपरीत भी प्रकारांतर से आपका हितैषी हो सकता है।
साहित्यकार के दायित्वों पर चर्चा करते हुए डॉ. शाह ने कहा कि बदलते दौर के साथ जो चुनौतियां समाज में खड़ी होती हैं उनके जवाब में आज लेखक को अपनी रचना पर्याप्त तेजस्वी रख पाना जरूरी है। नई रचना प्रवृत्तियां समझना होगी। नए लेखकों को प्रोत्साहित करना होगा और सबसे बड़ी बात- लेखकीय स्वाभिमान की रक्षा करना होगी।
श्री शाह ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि साहित्य को जनता तक पहुंचाने वाले पुल पत्रिकाएं, संपादक, अखबार, अध्यापक सब आज उदासीन हैं। सबकी भूमिकाएं अपनी प्रखरता और गंभीरता खो चुकी है। किताबें महंगी हो गई हैं और खरीददार सिमट गए हैं। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से विचलित होने की जरूरत नहीं है। बस, हम तकनीक के बंधक न बन जाएं। हमारी माध्यम पर संतुलित आस्था हो। हम उसका अपने लिए सकारात्मक उपयोग करें।
उम्र के सातवें दशक से गुजर रहे डॉ. शाह कहते हैं कि मैंने अपने लंबे अध्यापकीय जीवन में बड़ी तपस्या और परिश्रम से कुछ मूल्य कमाए हैं। मैंने उनके साथ कभी समझौता नहीं किया। विद्यार्थियों से अथाह प्रेम-श्रद्धा मिली। शाह साहब ने कहा कि मैं ज्ञानात्मक स्तर पर डॉ. नामवरसिंह जैसा सौभाग्यशाली नहीं हूं, जिनके शिष्य सारे हिन्दुस्तान में हर जगह पर फैले हुए हों, जो उनके विचारों का प्रचार करते हों। हो सकता है ऐसा हिन्दी में होता हो मैं तो अंगरेजी का प्राध्यापक रहा। उन्होंने कहा कि आज भी मेरे भीतर प्रश्नाकुलता है। नहीं लगता कि अपनीयात्रा के अंतिम चरण में पहुंच गया हूं। शायद कोई और साधना भी जरूरी होती है साहित्य के अलावा, जिसमें जीवन की गांठ खुलना आसान होता है।