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कहानी : ‘बे’-इज्ज़त पास

- दिनेश ‘दर्द’

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हमें फॉलो करें कहानी : ‘बे’-इज्ज़त पास
उज्जैन के लिए देवास प्लेटफार्म पर अभी ट्रेन पहुंची ही थी कि सवारियों की आमदोरफ़्त तेज़ हो गई। उतरने वाले उतरे और बाहर की राह पकड़ ली।

मगर चढ़ने वालों की कशमकश अभी जारी थी। लोकल ट्रेनों में चढ़ने वाली सवारियों की हमेशा दो श्रेणी होती हैं। एक तो बाकी सवारियां, जो अपने लिए जगह ढूंढ रही थीं और दूसरी, अप-डाउनर्स, जो अपने तय डिब्बों (कोच) की ओर लपक रहे थे। इसी बीच 2 मिनट होते-होते ट्रेन ने चलने का इशारा किया और सरक पड़ी, फिर धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ ली।

इस बीच सामान्य श्रेणी कोच में कुछ अप-डाउनर्स अपने-अपने साथियों के साथ जा ठंसे और कुछ जगह बनाने की जुगत में लग गए। लेकिन इन्हीं अप-डाउनर्स में से एक थे लतीफ़ चाचा, उम्र- कोई 58 के आसपास। पेशा- मोची और छतरियां भी सुधार लेते थे। देवास की किसी सड़क किनारे छाते तले जूते-चप्पल-छतरियां सुधारते हैं।

बहरहाल, वो इस कशमकश से दूर एक सीट का कोना पकड़कर ख़ामोशी से खड़े हो गए। शायद एक स्टेशन ही गुज़रा होगा कि आवाज़ आई...चचा! लीजिए जगह हो गई, बैठ जाइए। साथी अप-डाउनर, इक़बाल ने कहा।

अमां हम ठीक हैं यार। दिन भर बैठे ही तो रहते हैं और फिर घंटे भर के सफ़र के लिए क्या बैठना। किसी और ज़रूरतमंद को दे दो जगह। चचा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

लेकिन चचा, हमें लगा कि आप बुज़ुर्ग हैं, थक जाएंगे इसलिए कह रहे थे बैठने को। इक़बाल के इसरार में कुछ दया भाव था।
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अर्रे कहां की थकन बेटा। थकन के बावजूद अपन को तो ख़ुद से यही जताना है कि अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है। अभी थकावट के बारे में सोचना भी हराम है हमारे लिए। बेऔलाद होने की बेबसी चचा की आवाज़ से साफ़ टपक रही थी। मगर जबीं (मस्तक) थी कि ख़ुद्दारी की चमक से धुली हुई।

बात-बात में इक़बाल ने चचा के परिवार, उनकी आमदनी, गुज़र-बसर, बेऔलाद होने सहित उनके जीवन से जुड़ी कई बातों के बारे में जानना चाहा। इस पर चचा ने हल्की-सी मुस्कुराहट में पिरोकर किसी दार्शनिक के से अंदाज़ में कहा कि- यूं तो सारी दुनिया अपना परिवार ही है मियां, और वैसे देखा जाए तो परिवार में मैं ख़ुद और सिर्फ़ मेरी शरीके हयात (पत्नी) हैं। अल्लाह के करम से साढ़े तीन-चार हज़ार के क़रीब हो जाती है आमदनी। दाल-रोटी मिल जाती है। बस्स, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। झोली औलाद से खाली होने का अफसोस इसलिए नहीं क्योंकि सबकुछ तो अल्लाह की मर्ज़ी से होता है, और वो किसी का बुरा नहीं कर सकता।

इक़बाल को ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि मैले-कुचैले कपड़ों के पीछे कोई इतना बलंद किरदार शख्स भी हो सकता है। उसकी हैरत तब और बढ़ गई, जब चचा ने उसे दिखाने के लिए अपनी पत्नी की तस्वीर कुर्ते की जेब से निकाली। लेकिन उसकी हैरत चची की तस्वीर से नहीं बल्कि तस्वीर के साथ ही निकल आए ट्रेन पास से वाबिस्ता थी। और वह सहसा ही पूछ बैठा-

अर्रे ये क्या चचा, आप ये वाला एम.एस.टी. (मंथली सीज़नल टिकट) बनवाते हैं?

अम्म....हां भई। यही तो बनवाना चाहिए। लेकिन तुम इस क़दर चौंक क्यों गए यार? चचा ने प्रतिप्रश्न किया।

नहीं चचा! दरअस्ल, हम सब ‘इज्ज़त पास’ बनवाते हैं ना। अर्रे व्वोओ.....जो 25 रुपए में बनता है। बस्स 25 रुपए में पास बनवाओ और महीने भर किसी भी ट्रेन में मस्ती से सफ़र करो। इक़बाल ने अपने अप-डाउनर साथियों की ओर इशारा करते हुए कहा।

इक़बाल की इस बात से चचा सन्न रह गए। जैसे उनको इक़बाल जैसे पढ़-लिखे नौजवान लड़के से 25 रुपए का पास बनवाने की उम्मीद नहीं थी। और बस्स, कुछ बोलते-बोलते खो गए कही। कहने लगे-

भाई! सुना है, ‘इज्ज़त पास’ तो वो लोग बनवाते हैं ना, जिनकी माहवार आमदनी 1500 रुपए तक या उससे कम हो। लेकिन मेरा ख़ुदा बड़ा रहम दिल है। वो तो मुझे इससे कई गुना ज़ियादाह पैसे अता फरमाता है। लिहाज़ा मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं ग़रीबों की थाली से उनके हक़ की रोटी चुराऊं, जबकि मेरा ख़ुदा मुझे मेहनत और इज्ज़त की पेट भर रोटी खिलाता है, कभी भूखा नहीं सुलाता। लतीफ़ चाचा ने बड़े फ़क्र से जवाब दिया।

ग़रीब की थाली....हक़ की रोटी....!!! चचा, ये क्या बात कर रहें हैं आप, मैं कुछ समझा नहीं? मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा। इक़बाल शायद चचा के शब्दों में उलझ गया था, लिहाज़ा उनकी बात का मफ़्हूम समझे बग़ैर बस इतना ही पूछ सका।

हां। ग़रीब की थाली....हक़ की रोटी....। अरे भई, जो सुविधा सरकार ने जैसे-तैसे 1500 रुपए तक कमा पाने वाले ग़रीबों को दी है। क्या उससे कहीं ज़ियादाह कमाने वाले हम लोग उस सुविधा का फ़ायदा उठाकर, उनके हक़ की रोटी नहीं छीन रहे हैं? चचा की बात में सवालिया लहजा साफ़ झलक रहा था।

मगर चचा! हममें से किसी की 15, किसी की 20 हजार या उससे भी ज़ियादा तनख्वाह है, लेकिन हमने तो कभी महंगा वाला एम.एस.टी. नहीं बनवाया। जब सरकार 25 रुपए में शान से अप-डाउन करने की सहूलियत दे ही रही है, तो अप्पन काएको फोकट होशियारी दिखाएं और ख़ुद को बेवकूफ साबित करें। इक़बाल की सफाई में चचा का तर्क हवा में उड़ा देने के भाव थे लेकिन आवाज़ में कुछ लर्ज़िश भी।

हा हा हा हा....बहुत ख़ूब, मेरे बच्चे। मुआफ़ करना, इक़बाल मियां। बेशर्म बनकर कमाई जाने वाली ऐसी ‘इज्ज़त’ से ख़ुदा कम-अज़-कम मुझे तो दूर ही रक्खे। पता नहीं, क्यूं हज़ारों कमाने वाले ये लोग ‘बे’-‘इज्ज़त पास’ बनवाते हैं। ख़ैर, मैं कौन होता हूं इन ‘अमीर’ लोगों पर कोई इल्ज़ाम लगाने वाला और फिर ये सोचने की मेरी तो कोई हैसियत भी नहीं। इतना कहकर, आगे भी कुछ कहने के लिए ज़रा देर ठहरकर चचा फिर बोल पड़े...

मैं पहले ही बता चुका हूं कि मेरा अपने ख़ुदा पर बहुत अक़ीदा है। मुझे यक़ीन है कि वो हर तरफ, हर जगह मौजूद है। इसलिए मैं ये भी मानता हूं कि यक़ीनन उसकी नज़र में मेरे आमाल (कर्म) भी होंगे। मैं नहीं चाहता कि क़यामत के रोज़ जब मेरा आमालनामा पढ़ा जाए, तो उस पाक परवरदिगार के सामने मैं बतौर गुनहगार सर झुकाए खड़ा रहूं। लिहाज़ा, ऐसी अमीरी से तो मेरी दो वक्त की सूखी रोटी वाली ग़रीबी ही भली। ऐसी ‘इज्ज़तें’ मेरे किस काम की, जो रोज़े हश्र (कयामत के दिन) मुझे अपने ख़ुदा के सामने बेइज्ज़ती से सर झुकाए खड़ा रहने पर मजबूर कर दे। किसी दरवेश की तरह किसी नामालूम से मंज़र की ओर इशारा कर बोलते-बोलते यकायक ख़ामोश हो गए लतीफ़ चचा। मगर चचा की इस तर्ज़े अदा और अक़ीदत के इस फ़ल्सफ़े पर लाजवाब था इक़बाल।

और फिर कुछ वक्फ़े के बाद एकदम से माहौल बदलते हुए चचा ही कह उठे...लो भई, बात ही बात में आ गया अपना उज्जैन। चचा ने बच्चों की-सी भोली मुस्कुराहट लिए, बस इतना ही कहा और बहुत कुछ छोड़ दिया अनकहा ही ‘इज्ज़त पास’ वालों के सोचने के लिए।

इधर चचा को छोड़ डिब्बे में मौजूद सारी अप-डाउनर्स बिरादरी में एक बेचैनी-सी थी। शायद अपराध बोध से पैदा हुई बेचैनी। शायद अहदे-नौ (इस दौर में) में अब तक दो जहां के मालिक को ग़ैरहाज़िर मानने की बेचैनी, शायद चचा की साढ़े तीन-चार हज़ार की रईसी के सामने अपनी 15-20 हज़ार रुपए की ग़रीबी वाली बेचैनी और शायद...।

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