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काली

हिन्दी कहानी

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पं. संतोष व्यास

गरीब बस्ती में रहने वाले रामदीन की सारी उम्र खिलौने बनाकर बेचने में ही बीत गई। एक बेटी को जन्म देकर बीवी कभी की मर गई थी। अब वह भी बूढ़ा हो गया था। दमे का शिकार अलग था, फिर भी पेट भरने के लिए खिलौने बनाता था। अब उसकी बेटी काली जवान हो गई थी और रोज टोकरा सजाकर खिलौने बेचने बाजार जाती थी।

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काली का रंग कोयले की तरह काला था। नाक चपटी और आंख टेढ़ी बनाकर कुदरत ने उसको मजाक का पात्र बना दिया था। उसका नाम काली किसी ने रखा नहीं, बल्कि खुद ही मशहूर हो गया था।

पिता रामदीन ने उसकी शादी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया, मगर कोई भी उससे शादी करने को तैयार नहीं हुआ। कभी-कभार उसके जवां अरमान मचलते और छिपकर वह घर के टूटे आईने के सामने खड़ी होती और अपने बिगड़े चेहरे को देख सहमकर आईने के सामने से हट जाती।

कई बार रामदीन बस्ती वालों से कहता था कि उसे अपनी मौत का डर नहीं रहा। काली खिलौने बेचकर अपनी जिंदगी गुजार लेगी। पर काली को पिता के ये सादगीभरे शब्द कांटे की तरह चुभते थे। वह तो अपने बूढ़े पिता का सहारा बन गई, पर उसकी वीरान जिंदगी का सहारा कोई क्यों नहीं है? कितनी ही बार लोगों की उसकी बदसूरती का मजाक उड़ाया था। वह सोचती- 'क्या बदसूरतों में दिल नहीं होता? क्या हमारे दिल में कोई अरमान नहीं होते?' पर दुनिया को इससे क्या लेना-देना?

एक दिन काली खाना बनाकर खिलौने बेचने के जाने के लिए तैयार हो रही थी कि तभी पिता ने आवाज लगाई- 'बेटी, खिलौने का टोकरा तैयार है।'

'आई बापू', काली दौड़कर पिता के पास गई। काली ने देखा, रोज की तरह पिता ने दूसरे खिलौनों के ऊपर एक बदसूरत खिलौना रख दिया था।

काली ने कहा- 'बापू इसे हटा दो। कल भी मैंने कहा था। इसे कोई नहीं खरीदता, फिर क्यों इसे रख देते हो?'
पिता
ने समझाते हुए कहा- 'बेटी, कुछ ही तो टेढ़ा-मेढ़ा है। नजर बचाकर किसी को खपा देना।

काली ने पिता को समझाया- '10 दिन हो गए, सब खिलौने बिक जाते हैं, केवल यही टोकरे में रखा रह जाता है, खपने की चीज होती, तो कभी की खप जाती...।'

बूढ़े बापू ने कहा- 'बेटी, आज और आजमा लो...। तुम्हारी शादी की अभी भी उम्मीद लगाए बैठा हूं।'

काली के वीरान मन में आशा की किरण फिर जाग उठी।

'बापू को अभी भी मेरी शादी की उम्मीद है। अगर यह खिलौना खप जाएगा, तो शायद मैं भी इस दुनिया के हाट में खप जाऊंगी...' और काली ने वह बदरंग, टेढ़ा-मेढ़ा खिलौना टोकरे में रख लिया।

काली देर रात तक खिलौने बेचती रही। एक-एक कर सारे खिलौने बिक गए। हर बार वह उस कुरूप व बदरंग खिलौने को आगे बढ़ाती, पर उसका हाथ हटाकर बच्चे दूसरे खिलौने खरीद लेते। उस छूते तक नहीं। एक ने तो यहां तक कह दिया कि 'इसे कचरे के ढेर में डाल दो। नहीं तो नदी में फेंक दो...। बार-बार इसे क्यों उठा लाती हो?'

काली का दिल टूट गया। काश! आज यह खिलौना बिक जाता, तो शायद दुनिया के हाट में वह भी कहीं खप जाती। वह फफक-फफककर रो पड़ी।

रात बहुत हो चुकी थी। रात के सन्नाटे में किसी ने भी उसके आंसुओं को नहीं देखा। तेज कदमों से दौड़ती हुई वह घर की ओर जा रही थी। उसका जी कर रहा था कि जल्दी घर जाकर चीख-चीखकर बूढ़े बापू को कोसे कि क्यों बापू ने उसकी बात नहीं मानी? क्यों उसे वह खिलौना बाजार में खपाने के लिए मजबूर किया।

लालटेन जल रही थी। झोपड़ी में पुरानी खटिया पर बैठा रामदीन बेटी का इंतजार कर रहा था। आज दमा भी बढ़ गया था। धौंकनी की तरह उसका सीना फूल रहा था।

रह-रहकर उसके दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे- 'अब मैं ज्यादा दिन नहीं जी पाऊंगा... दमा मेरा दम लेकर ही रहेगा... मगर मैं मर गया तो काली इस वीरान दुनिया में अकेली रह जाएगी...' तभी धड़ाम से दरवाजा खुला और धम्म से काली पिता के सामने बैठ गई। उसके खाली टोकरे में मात्र वही कुरूप खिलौना पड़ा था।

यह देख रामदीन का दम फूलने लगा। सूनी आंखों से वह काली को देखने लगा। बूढ़े पिता के फूलते दमे और गहरी, सपाट आंखों को देखकर काली का गुस्सा शांत हो गया। उसकी आंखों से आंसू गिर गए।

वह धीरे से बोली- 'बापू आइंदा ऐसा खिलौना मत बनाना जिसका खरीदार दुनिया में कोई न हो।'

और उसने वह खिलौना जमीन पर दे मारा। खिलौने के टुकड़े झोपड़ी में चारों ओर बिखर गए।

रामदीन कुछ नहीं बोला। उसकी आंखों में भी दो मोती चमक आए थे।

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