-कनुप्रिया
मैं धीरे-धीरे पूर्ण आवेश में आ चुकी थी, 'हाँ! कायर! आप डरते हैं कि लड़की की शादी में दहेज कैसे देंगे, क्योंकि आपमें हिम्मत नहीं कि दहेज के नासूर को समाज से दूर कर सकें।
'आप कायर हैं क्योंकि आपमें अपनी बेटी के यौवन और सौंदर्य की रक्षा की हिम्मत नहीं, कि उसे लोलुप आँखों से कैसे बचाएँगे?'
'आप डरपोक हैं, क्योंकि बेटी पर होने वाले एक भी अत्याचार को रोकने का साहस आपमें नहीं है। इसीलिए आपको बेटी नहीं चाहिए।' मैं बोलती ही जा रही थी।
'बहनजी! मेरी बच्ची नहीं रही!' वह घुटनों पर ठुड्डी टिकाकर चुप रही। मेरा काम छोड़कर शारदा प्रसव के लिए अपने ससुराल गई थी। उसकी भावनाओं का आदर करके मैं चुप रही।
कुछ देर तक हम दोनों अपने-अपने विचारों में खोए रहे, उसकी हँसी सुनकर मैं चौंकी, 'क्या हुआ यशोदा?'
'मैं कह रही थी कि मेरे सास-ससुर और बाकी सभी जनों को गाय के जाये का बड़ा सदमा था, मेरी बच्ची का नहीं।'
'तू पगली तो नहीं हो गई री, चाहे जो बके जा रही है'
'पूरी बात सुनकर आप मुझे पगली नहीं कहेंगी, बाईजी।'
'बता ना पूरी बात।' मैंने उसे निमंत्रण दिया, 'मैं यहाँ से गई तो सास-ससुर, जेठ-जेठानियों ने बड़ी आवभगत की, काम सब करवाती रहीं- दूध दोहना, रोटी पकाना, कंडे थापना, रात को सब जनों के पैर दाबना।'
'तू तो करना चाहती थी न सबकी सेवा!' बस ससुराल में मरजादा बनी रहे, सब कुछ करूँगी' मैंने उसकी नकल निकाली।'
'हुई तो थी मैं खुश, लेकिन एक फिकर लगी थी। आपने कहा था ना बहनजी कि लड़का या लड़की का जनम होना आदमियों के कारण तय होता है औरतों के नहीं' (हाँ! मैंने ही उसे एक दिन जीव विज्ञान का यह पाठ पढ़ाया था) मुझे समझ में आ गई ये बात, लेकिन वो गाँव खेड़े में रहने वाली, कैसे समझते?'
'हाँ और तू बड़ी मॉडर्न है ना! पुरखिन सबकी'- मैंने उसकी गंभीरता तोड़नी चाही।
'बहनजी! कुछ भी कहो, तुम्हारे साथ चार बरस रहकर मैं बड़ी समझदार हो गई, लेकिन वे नासमझ लोग! रात-दिन, उठते-जागते पोते की आस लगाए मुझसे पूजा-पाठ, मनावती करवाएँ कि बेटे की प्रार्थना कर।'
'तो इसमें बुरा मानने की क्या बात थी!' कहते ही मैंने अपनी जबान काट ली। ये मैं कह रही हूँ? डॉक्टर ने भ्रूण परीक्षण करके जबसे मेरी भावी संतान का लिंग घोषित किया है, तबसे रमेश उससे छुटकारा पा लेने के लिए मुझे उकसा रहे हैं- 'मेरी बात मानो अरुणा! लड़का भी होता तो ये सब असुविधाएँ बर्दाश्त कर लेता कि तुम अवैतनिक अवकाश ले लेती या मैं, परंतु लड़की...!' बेसाख्ता मेरे मुँह से निकल गया था- 'लड़के को अलग-अलग रहकर पालने-पोसने में क्या हमें असुविधा नहीं होती। लड़की के लिए ही सुविधाएँ जुटानी पड़तीं क्या!' रमेश चिल्लाए थे, 'चुप करो अरुणा! तुम नहीं जानती कि लड़का लड़का ही होता है। क्या तुम्हें शब्दशः सब समझाना पड़ेगा?'
मैं अपनी आँखों का परिताप छुपाने के लिए उजाले की ओर पीठ करके खड़ी हो गई थी।
मेरे कंधे पर रमेश ने हाथ रखा तो मुझे पहली बार उस स्पर्श से वितृष्णा हुई, 'अरुणा, मैं तुम्हारा भला सोचकर ही कह रहा हूँ। ऐसे में मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ, देखभाल करना चाहता हूँ। तुम ऐसे में अकेली कैसे रहोगी।'
'तो रहिए ना मेरे पास! अपना तबादला करवा लीजिए यहाँ! है तो एक जगह खाली।'
'ओफोह! फिर वही रट! वहाँ अपना घर है, माँ-पिताजी हैं, एक-दो साल हमें तकलीफ भले ही उठानी पड़े। तुम ही वहाँ आ जाओ तो बेहतर है।' मैं कई कड़वे सवाल पीकर रह गई। तकलीफ किसे है! निर्जीव घर, सजीव जीवनसंगिनी से भी बड़ा है। माँ-पिताजी अशक्त नहीं हैं, दो और बेटे-बहू हैं वहाँ। सब बहाने हैं, असलियत तो इनसे अलग दो बातें हैं- 'अरुणा! तुम ही सोचो! मेरे दोस्त, मेरे माता-पिता क्या कहेंगे? पत्नी के पास रहने के लिए इतनी आतुुरता थी कि सबको छोड़कर वहाँ चला गया। जोरू का गुलाम कहेंगे मुझे!'
मैं अपना आक्रोश न छुपा सकी, 'पत्नी हूँ आपकी! भगाकर तो नहीं लाए हैं ना! जीवनभर साथ रहने की शपथ मैंने ही नहीं ली है, आपने भी ली है। यहाँ आ जाने से क्या आप मेरे जरखरीद गुलाम हो जाएँगे?'
'ओफोह! जान-बूझकर अनजान न बनो अरुणा! ये भारत है, यहाँ के लोग इतने समझदार नहीं हैं।'
'अपनी कमजोरी को पूरे देश की आड़ लेकर छुपा रहे हैं। सीधे से क्यों नहीं कहते कि पत्नी के पास आकर रहने से हेठी होती है। हर कोई इसी तरह बाकी सबकी दुहाई देकर अपनी कमजोरियों को पालता-पोसता है। आपका 'मेल ईगो' सिर उठा रहा है।'
'क्या हुआ बहनजी! इतनी चुप क्यों हो गईं?' मैं हड़बड़ा उठी, 'हाँ! तो तू बता रही थी! गाय के बारे में!' मैं यशोदा के पास लौटी।
'हमारे घर में पाँच गायें हैं। चार तो अभी ब्याही नहीं, एक ब्याही थी। हमारी सास, जेठानियाँ उसे दुलारती, सहलाती और रोज कहती, 'सोना! कामधेनु देना हमें' मैं सोचती कि मेरी ही बेटी इन्हें नहीं चाहिए। मुझे उसका सौवाँ हिस्सा दुलार भी नहीं मिलता था।
'मेरी लड़की आठमासी थी। एक दिन पूरी भी नहीं जी। मेरी तो जिंदगी ही उजड़ गई। वह हिलक- हिलक कर रोने लगी। मेरे मन में कैसी दर्द की मरो़ड़े उठीं, मैं उसे देख भी न पा रही थी, सांत्वना किसे देती! उसे या अपने आपको?
काफी देर बाद वह फिर बोली, 'ग्यारहवें दिन घर गई तो वहाँ सबकुछ बढ़िया चल रहा था। मेरे नाम से हलवे बनते, सास और जेठानियाँ भी खातीं। मेरे आदमी ने एक दिन भी मुझे ढाँढस नहीं बँधाया। बेटी तो मेरी कोख में थी ना, उसे क्यों टीस उठती? माह बीत गया! जिस दिन मैं उठकर काम करने लगी थी, उसी शाम हमारे घर के सब आदमी कलप रहे थे। सास को ससुर ने आकर कुछ बताया, फिर तो सारा घर कलपने लगा। जेठ-जेठानी रोई तो मेरे आदमी ने भी आँखें गीली कर लीं। बस एक मैं ही नहीं रोई। मेरी सास कहने लगी- 'ये ना रोवेगी! इसेक्यों आवेगा रोना! करमजली। इसी की नजर लगी रे मेरी सोना को। भरी-पूरी सोना को ये न देख पाई। मर गई उसकी बेटी होते ही। तब मैं माजरा समझी बहनजी कि हमारी गाय ने बछड़ी जनी थी, पर मरी हुई। इसी पर मेरी सास पिनपिना रही थी।'
'कैसी बातें करती हैं यशोदा, किसानों के लिए, गाँववालों के लिए पशु बड़ी चीज है।' मैंने समझाया।
'तो माँ के लिए भी तो उसकी संतान उत्तई (उतनी ही) बड़ी है। हमारी बच्ची मरी तो हमारी सास कहे- 'काहे आँखें सुजाए घूमती हो लाड़ी। एक कीड़ा ही तो था। वो भी लड़की। उस पर मरी हुई। अठमासे बच्चे कहीं जीते हैं? भगवान ने भली करी। अगली बार बेटा ही देगा, तेरी गोद में।' 'मेरी बच्ची मरी तो कीड़ा- उसकी बछिया थी 'बेटी'। हमारा दिल ऐसे बेदर्द लोगों से कट गया। पशु का दुःख-दर्द समझें, औरत का नहीं। धत्!' यशोदा मर्माहत थी।
'बस कर! यशोदा बस कर! जा, जाकर थोड़ी देर आराम कर।'
वह हँसने लगी व्यंग्य से, 'लो बहनजी! तुम तो सुनकर ही कलप उठीं, जो कहीं गुजरी तो...'
मेरी चीख ने उसे चुपकर दिया- 'यशोदा! बस कर! बस कर!' मैं ही दौड़कर अपने कमरे में घुस गई और बिफरी साँसों को शांत करने लगी। उसे क्या मालूम, उसने मेरे अंदर यत्न से ढँकी किस चिंगारी की राख कुरेद दी थी।
कीड़ा-कीड़ा-कीड़ा! मेरे मस्तिष्क में यही एक शब्द गूँजने लगा। जिस समाज में जीवित स्त्री का मूल्य नहीं, उसकी अस्मिता को सम्मानपूर्ण स्वीकृति नहीं, वहाँ अजन्मी स्त्री तो कीड़ा ही है! नहीं! नहीं! नहीं!...! मेरी बच्ची कीड़ा नहीं। जीवन के लिए विकसित होती हुई एक नन्ही अजन्मी बच्ची को मैं कैसे मार दूँ? नहीं। कदापि नहीं। मैंने निर्णय कर लिया था। रमेश का सामना करने का साहस जुुटाने के बाद मैंने उन्हें बुलवा भेजा। मेरी शांति कृत्रिम भी हो सकती थी और तूफान के पहले की शांति भी! मुझे ही नहीं पता।
आते ही रमेश ने बात छेड़ी, 'चलो! तुम्हें समझ तो आई। मैं तो थक चला था तुम्हें समझाते- समझाते।' वे हँसकर मेरे पास आए, मैंने हाथ से उनकी प्रगति रोकी और कहा- 'शायद आप मेरी समझ से खुश नहीं होंगे। मैंने आपकी राय न मानने का फैसला किया है।'
'क्या? और इसके लिए तुमने मुझे वहाँ से दौड़ाया? क्यों मुझे यूँ सता रही हो अरुणा?'
'मैं सता रही हूँ? आपको मालूम है कि आप मुझसे मेरी ही बच्ची की हत्या करवा रहे हैं? उससे मुझे जो शारीरिक और मानसिक क्लेश होगा, इसका कोई अनुमान है आपको।'
वे बड़ी नरमाई से बोले, 'मैं तुम्हारा खूब ध्यान रखूँगा अरुणा! आखिर तुम मेरी इकलौती पत्नी हो।' उनके इस असमय हास्य से मुझे अरुचि हो आई। 'और बच्ची कैसी, अभी तो उसके नैन-नक्श कुछ भी नहीं।' उन्होंने जोड़ा।
'आपके लिए नहीं, लेकिन मेरे लिए है।' उसकी धड़कन मेरी धड़कन से मिलकर गाती है, उसकी साँसें मेरी साँसों में घुली हुई हैं और उसके प्राण, मेरे प्राण एक हैं।'
'डोंट बी ए सेंटीमेंटल फूल, अरुणा। भावुक मत बनो। वो अभी कुछ भी नहीं। वो तो... वो ...तो...' रमेश को अटकते देख मैं बिफर उठी- 'एक कीड़ा है। बोलो, डरते क्यों हो?'
'भावुक मत बनो अरुणा! लड़की पालना आजकल कोई आसान काम नहीं। ये बहुत बड़ी समस्या है।'
'तो आपकी माँ भी एक समस्या थी। उसी समस्या से आप जैसे समाधानों का जन्म हुआ।' मैं खुद को रोक न पाई।
'ओह! क्या ऊटपटाँग बोले जा रही हो, अरुणा, क्या हो गया है तुम्हें?' रमेश स्तब्ध थे।
'मुझे कुछ नहीं हुआ। आप ही को अपनी कमजोरियाँ हमारी 'मूर्खता' पर थोपने की आदत पड़ गई है। क्यों नहीं चाहिए आपको बेटी? क्या आफत आती है? आपको नौकरी दिलाने के लिए आपके पिताजी ने बीस हजार रुपए रिश्वत दी थी कि नहीं? लड़की ही पालने में ये कायरता कैसी?'
'कायरता? ये कौन-सा नया वार है? हमें लड़की नहीं चाहिए, इसका मतलब हुआ कि हम कायर हैं?' रमेश चिल्लाए।
मैं धीरे-धीरे पूर्ण आवेश में आ चुकी थी, 'हाँ! कायर! आप डरते हैं कि लड़की की शादी में दहेज कैसे देंगे, क्योंकि आपमें हिम्मत नहीं कि दहेज के नासूर को समाज से दूर कर सकें।
'आप कायर हैं क्योंकि आपमें अपनी बेटी के यौवन और सौंदर्य की रक्षा की हिम्मत नहीं, कि उसे लोलुप आँखों से कैसे बचाएँगे?'
'आप डरपोक हैं, क्योंकि बेटी पर होने वाले एक भी अत्याचार को रोकने का साहस आपमें नहीं है। इसीलिए आपको बेटी नहीं चाहिए।' मैं बोलती ही जा रही थी।
'मगर, ये सब! अगर मैं इस बात पर तुमसे...!' रमेश बोलते-बोलते एक पल को हिचक... 'क्या तलाक ले लेंगे? तो लगे हाथ मेरी भी एक बात सुन लें। भ्रूण का लिंग पता लगाना गैरकानूनी है। अगर यह बात मैं महिला प्रकोष्ठ तक...!'
'तुम' इस हद तक जाओगी।' रमेश को विश्वास न था।
'हदें केवल आप ही तय कर सकते हैं क्या? इतने शांत स्वर में मैंने यह बात कही कि रमेश को सुनाई न दी- मैंने दोबारा कहा- 'हदें केवल आप ही तय कर सकते हैं क्या?' रमेश की आँखें फटी -की-फटी रह गईं।