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जमीर

राजेन्द्र वामन काटदरे

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दूध-घी का व्यापार करने वाले गली के जमनादासजी का उठावना हो चुका था और आज बच्चों की खातिर पत्नी सरस्वती को दुःख भूलते हुए दुकान संभालनी पड़ी। हिसाब-किताब कहीं लिखा हुआ नहीं था अतः नौकर जो याद कर बता रहा ा उसी पर लेन-देन करने का रास्ता बचा था। रवि बाबू दुकान पर गए तो दूध बंदी का पिछले माह का हिसाब जमा कर सांत्वना दे आए।

शाम जब ये वाकया उनके मित्र सुरेशजी को पता चला तो गुटखे का आधा पाउच रवि बाबू की हथेली पर खाली कर और आधा मुँह में डाल वे छूटते ही बोले,'अबे बौड़म मुझसे भी माँगे थे दूध बंदी के पैसे उसकी बीबी ने मगर मैंने तो कहा कि जमनादासजी गुजरे उसके पहली शाम को ही तो दे गया था पैसा।' अबे ये लोग बहुत पानी मिलाते हैं दूध में, एकाध महीना इनसे फ्री में दूध ले भी लिया तो क्या हुआ और फिर साला जमनादास तो मर खप गया।'

जमीन पर पिच्च से गुटखा थूकते हुए रविबाबू कड़वाहट से बोले,'जमनादास मरा है, मेरा जमीर थोड़ी मरा है।'

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