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दो लघुकथाएँ

'जीना'

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-सुधा दात
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'जीने की जगह (सीढ़ियों की जगह) दीवार उठा दो।' दोनों भाइयों में ये फैसला होते ही दोनों की पत्नियाँ परेशान हो उठीं। देवरानी-जेठानी में प्रेमभाव था। लेकिन दोनों भाई तलवार ही खींचे रहते थे। उस दिन जरा-सी बात पर कि 'चौका छोटा पड़ता है', दोनों की बहस यहाँ तक जा पहुँची कि एक घर के, दो घर होने को आए।

लेकिन दोनों महिलाओं ने ये तय किया कि जीने (सीढ़ियों) की जगह दीवार की बजाय क्यों न उसे मिलाकर किचन ही बड़ा कर लिया जाए। जीने की जगह जीने (जीवित रहने) की ही बनी रहे तो बेहतर है। और हाथों ने तलवार की जगह कंस्ट्रक्शन के नक्शे धर लिए।

नीय
भारती पंडि
'क्या भाव दिए टमाटर, भैया?' मैंने सब्जी वाले (बच्चे) से पूछा था... पाँच रुपए पाव दीदी... छोटे ने मुस्कुराकर भाव बताया।

तौल-मोल के बाद मैं सब्जियाँ तुलवाने लगी। बच्चे को देख उसका ध्यान बँटा तो मैंने तौल से अधिक सब्जियाँ चुपचाप थैले में डाल लीं। पैसे देकर आगे बढ़ी ही थी कि पीछे से आवाज आई... 'दीदी ओ दीदी' पलटकर देखा तो वही छोटू सब्जीवाला मेरा बटुआ हाथ में लिए चला आ रहा है...।
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'ये बटुआ मेरी दुकान पर ही भूल गई थीं आप...' मैंने झपटकर बटुआ लिया। उसमें काफी रुपए जो थे, खोलकर देखा तो सब सलामत थे... दस रुपए छोटू को देने चाहे, पर उसने हँसकर मना कर दिया...।

मेरे थैले में चुपके से डाली गई सब्जियाँ मानो मुझे मुँह चिढ़ा रही थीं और मैं भीतर ही भीतर अपराधबोध से दबी जा रही थी। -

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