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लघुकथा : लक्ष्मीजी का स्थान

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, रविवार, 12 अक्टूबर 2014 (13:51 IST)
मीरा जैन
 
दीपावली की शाम उल्लू पर सवार सैकड़ों घरों के अवलोकन के पश्चात भी लक्ष्मीजी को निवास के लिए अनुकूल स्थान नहीं मिल पाया था। भ्रमण के दौरान एक घर के अंदर हो रहा शोर-गुल सुन उल्लू वहीं ठिठक गया और वहाँ का परिदृश्य देख अति उत्साहित हो बोला- 'मैया लक्ष्मीजी! आखिर मिल ही गया आपको आपका ठिकाना, देखिए आपके प्रति इस घर के लोगों में कितनी श्रद्धा है।

गृहलक्ष्मी द्वारा आपकी चाँदी की मूर्ति को मखमली आसन पर विराजित करते हुए थोड़ी-सी लुढ़क क्या गई पूरा परिवार उद्वेलित हो उसे कितनी खरी-खोटी सुना रहा है। एक का तो हाथ ही उठ गया इतनी भाव-भक्ति और आस्था आपको अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगी।'


 
लक्ष्मीजी ने कहा- आगे चलो, उल्लू अवाक्‌ सा आगे चल पड़ा। राह में पुनः एक महिला के स्वर में लक्ष्मीजी का नाम सुन उल्लू ठहर गया, शायद काम बन जाए। लेकिन, वहाँ का नजारा देख उल्लू चौंक गया यहाँ नजारा ही उल्टा था। इसमें घबराने की क्या बात है बहू। कोई जानबूझकर तो तुमने ऐसा किया नहीं है, काम करने वाले हाथों से कभी-कभी धोखा भी हो जाता है। तुम चिंता न करो लक्ष्मीजी की ये तस्वीर टूट गई तो क्या मैं अभी गोपी को भेजकर दूसरी मँगवा लेती हूँ, तुम पूरे श्रद्धा भाव से पूजा की तैयारी करो।'
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लक्ष्मीजी को अपनी पीठ पर से उतरता देख उल्लू अचंभित हो बोला- 'हे मैया! यहाँ आपकी तस्वीर टूटकर चकनाचूर हो गई है और उस वृद्धा तो क्या पूरे घर वाले को इसका जरा भी गम नहीं है, आप ऐसे अनास्था वाले घर में क्यों प्रवेश कर रही हैं।'

'तुम्हारा नाम ठीक ही रखा गया है उल्लू! तुम हमेशा उल्लू ही रहोगे, तुम्हें इतना भी नहीं पता जिस घर में स्नेह, वात्सल्य, आत्मीयता और शांति का वास होता है वहीं मेरा निवास होता है।' इतना कह अंतर्ध्यान हो लक्ष्मीजी अदृश्य रूप से उस घर में पदार्पण कर गईं।

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