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शाबाश-मैं !

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- चेतना भाट

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गर्मियों की चिलचिलाती धूप का महीना, मई। दोपहर के एक बजे का समय। टीन की छत के नीचे जालीदार बरामदे में वह साधनारत थी। बिजली यूँ भी रहती नहीं, सामान्यतया और रहती भी तो क्या कर लेती वह? बाहर की लू ही काफी थी फिर पंखे से उठती लपटों का क्या दम?

बस यही थोड़ा समय ही तो उसका होता था, जब घर-गृहस्थी के सारे काम निपटाकर कुछ एकांत पाती थी।

पसीने में तरबतर पानी पीती, लिखती उसे लगा कि उसके उपन्यास के सौ पृष्ठ वह पूरे कर चुकी है। जैसे ही एक सौ एक वाँ पृष्ठ शुरू हुआ, वह झूम उठी अपनी उपलब्धि पर। आखिर वह एक मुकाम पा चुकी थी, जहाँ से किनारा पास आता नजर आ रहा था। उसके सपनों को ठौर मिल रहा था। वह अपना उल्लास, अपनी खुशी बाँटना चाहती थी। लेकिन वहाँ कोई नहीं था उसकी खुशी बाँटने या उसमें रुचि रखने वाला। हमेशा से तो यही हुआ है उसके साथ बचपन से ही। नारी कब सराही जाती है?
  तेरे मुँह में घी-शक्कर। तो जब तेरे मुँह में घी-शक्कर हो सकता है तो मेरे मुँह में क्यों नहीं? और बस, कलम रख वह तुरंत उठी। डिब्बे से एक रोटी निकाली उस पर घी-शक्कर रखकर अपना मुँह स्वयं मीठा किया- शाबास मैं।      


तो? लेकिन उपलब्धि तो है। अच्छा कोई और होता तो क्या कहती इस खबर पर, यही न कि- तेरे मुँह में घी-शक्कर।

तो जब तेरे मुँह में घी-शक्कर हो सकता है तो मेरे मुँह में क्यों नहीं?

और बस, कलम रख वह तुरंत उठी। डिब्बे से एक रोटी निकाली उस पर घी-शक्कर रखकर अपना मुँह स्वयं मीठा किया- शाबास मैं।

सूनी-सपाट दोपहर जैसे झंकृत हो गुनगुनाने लगी और सूरज की खिलखिलाहट तो रुक ही नहीं रही थी, तभी तो वह अपना पेट ऐसे उछाल-उछालकर अपने तेज और प्रकाश का झरना उलीच रहा था।



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