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लघुकथा : सासु मां

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प्रज्ञा पाठक

पुत्र का विवाह सानंद संपन्न होने और नई बहू के गृह-आगमन पर मां अतीव प्रसन्न थीं। बहू को आशीर्वाद देने आये सभी लोगों के समक्ष हुलसकर यही कहतीं-
 
"मेरे लिए तो बहू और बेटी में कोई फ़र्क नहीं। बहू तो मेरी बिटिया ही है।"
 
बहू भी यह बात उमगकर सुनती और ईश्वर के प्रति बारम्बार आभार व्यक्त करती स्वयं को भाग्यवान समझती।
 
कुछ दिन बाद माँ ने वर्षों से घरेलू कार्यों हेतु रखे गए दो नौकरों को कार्यमुक्त करते हुए तर्क दिया-"अब घर में बहू आ ही गई है।तुम लोगों की कोई ज़रुरत नहीं।"
 
बहू विस्मित थी।
 
फिर एक दिन मां ने बहू को दिए सभी आभूषण यह कहते हुए वापस ले लिए कि,'तुम अब दुल्हन नहीं बहू हो और बहू को सादगी ही शोभा देती है।'
 
बहू एक बार फिर चकित थी।
 
और एक दिन बहू को तेज़ बुखार होने के बावज़ूद घर का पूरा काम करने के बाद अत्यंत क्लांत वह बिस्तर पर लेटी ही थी कि मां आकर बोलीं-"उठ!
 
मीनाक्षी आई है। उसके लिए गर्म रोटी उतार दे।"
 
बहू ने आज पहली बार विनम्रतापूर्वक इंकार करते हुए कहा-"मां!आज तुम्हारी इस बेटी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। भोजन मैंने अधिक ही बनाया है। मीनाक्षी दीदी भी बड़े आराम से खा लेंगी।"
 
लेकिन मां  गर्म रोटी की ज़िद पर अड़ी रहीं।आखिर बहू ने शांत स्वर में कह ही दिया-"मां ,मैं बुखार में तप रही हूं। चक्कर आ रहे हैं। मीनाक्षी दीदी कोई मेहमान तो नहीं। यह तो उनका अपना ही घर है।"
 
बहू की बात सुनते ही मां बरस पड़ीं-तुझे यह देखकर लाज नहीं आएगी कि वह काम करे और तू आराम। आखिर वह 'बेटी' है और तू 'बहू' है। तुझमें और उसमें बहुत अंतर है।"
 
इस बार बहू विस्मित-चकित नहीं थी क्योंकि वह समझ चुकी थी कि मां अब 'मां' से आगे बढ़कर 'सासु मां' बन गई है।

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