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लघुकथा : बेबीकॉर्न

हमें फॉलो करें लघुकथा : बेबीकॉर्न
- डॉ. गरिमा संजय दुबे

'चल न बेबीकॉर्न खाते हैं' मेरी सहेली ने पास के होटल की तरफ इशारा करते हुए कहा। 
 
'मुझे नहीं खाना', मैंने अनमने ढंग से कहा।
 
'क्यों तुझे तो भूट्टे बहूत पसंद है', वह आश्चर्य से मेरी तरफ देखकर बोली।
 
'हां पर बेबीकॉर्न नहीं', मैंने उसी भाव से जवाब दिया।
 
पता नहीं क्यूं मुझे छोटे-छोटे नन्हे-नन्हे बेबीकॉर्न को कड़ाही में तलते, भूने जाते देखना एक अजीब से भाव से भर देता है। मुझे लगता है, मानो किसी को पूरा परिपक्व हुए बिना, शाखों से उतारकर उसकी कोमलता व नैसर्गिकता को अपने स्वार्थ के लिए भट्टी में झोंक दिया गया हो।
 
तभी एक स्कूल बस के हॉर्न से मेरी तन्द्रा टूटी, देखा सब बच्चों की मम्मा उन्हें लेने आई हैं। वापस जाते-जाते अमूमन सबके एक जैसे सम्मिलित वार्तालाप के स्वर मेरे कानो में पड़े- 'जल्दी चलो ट्यूशन भी जाना है..., फिर म्यूजिक क्लास भी जाना है..., आकर ट्यूशन और स्कूल का होमवर्क भी करना है..., तुम्हारे योगा क्लास के टीचर भी शिकायत कर रहे थे, ठीक से चलो... और ये क्या...! खाना कपड़ों पर कैसे गिरा? कुछ भी एटीकेट मैनर्स नहीं है..., इस बार फर्स्ट रैंक आनी चाहिए..., अच्छे से ध्यान से सब करना चाहिए..., क्रिकेट किट भी पापा ले आए हैं..., अगली बार एक्टिविटी में डांस भी ले लेना...। सारे बच्चे सर झुकाए सब सुनते जा रहे थे।
 
उफ्, अचानक मुझे ये क्या हुआ! सारे बच्चे मुझे बेबीकॉर्न क्यों नजर आने लगे? बचपन की शाखों से वक्त से पहले तोड़ लिए गए, महत्वाकांक्षा के तेल में तलते हुए... जीवन की भट्टी में झोंक दिए गए नन्हे-नन्हे, कोमल, मासूम बेबीकॉर्न। 

 

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