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कहानी : एक्सक्लूसिव दिवाली

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गरिमा संजय दुबे

"यह देखिए मैम, यह आपके ऊपर खूब फबेगी। इसका कपड़ा देखिए... प्योर शि‍फॉन है और उस पर स्टोन का काम। आप पर खूब फबेगा, कहते हुए जब सविता ने सामने बैठी महिला को देखा, तो अपने कहे पर उसे मन ही मन हंसी आ गई।

भारी भरकम शरीर और उससे भी भारी कपड़ों में मेकअप की पूरी दूकान भी उसकी बदसूरती नहीं छुपा पा रही थी। पिछले आधे घंटे से साड़ियों का ढेर लगवा चुकी थी, पर कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी। सविता ने घड़ी की ओर देखा, साढ़े आठ बज रहे थे, दिवाली का त्यौहार है तो देर तो हो ही जाती है। आखिर यही तो समय है कमाई का, हर बेची गई साड़ी पर मालिक कुछ परसेंट देता है सेल्सगर्ल को। उसका पति विनोद भी साड़ी के इस इस बड़े शो रूम में ही काम करता है। 

दिनभर एक से एक कीमती और सुंदर साड़ियों को खोलना बंद करना और बीच-बीच में उन साड़ियों में अपने को सजा देखने की कल्पना करना, सविता को बहुत भाता। तभी उस महिला की आवाज ने उसका ध्यान तोड़ा - " नो-नो, शो मी समथिंग एक्सक्लूसिव, सबसे अलग लगना है मुझे... है न डिअर, अपने पति के कंधे पर हाथ रखती वह  बोली। "और क्या मेरी एक्सक्लूसिव बीवी के लिए कोई एक्सक्लूसिव साड़ी दिखाओ" कहते हुए उसने बीवी के गले में हाथ डाल दिया, हाथ बीवी के गले में था पर निगाहें सविता के निर्दोष और अद्भुद सौंदर्य पर टिक गई"। सविता ने उसी तरह शालीनता से मुस्कुराते हुए एक बेहद खूबसूरत साड़ी आगे कर दी, ऐसे लोग तो रोज ही मिलते है, वाह रे एक्सक्लूसिव जोड़ा वह मन ही मन हंसी। "नो नो एक्सक्लूसिव समझती हो न? सबसे अलग, बेहद कीमती, बेहद खूबसूरत"।
 
विशालकाय काया ने अपने लिपस्टिक से रंगे होठों और आंखों को घुमाते हुए बोला। "ओके मैम" कह वह उठी और बेहद कीमती शेल्फ के पास जा साड़ी निकालने लगी। "एक्सक्लूसिव, दिन में पचास बार यह शब्द सुनती है, हुंह कपड़ों के एक्सक्लूसिव होने की कितनी चिंता है आजकल लोगों को, विचार और चरित्र कैसा भी हो चलेगा। ओह सविताsss , तू एक सेल्स गर्ल है इतने भारी विचार का बोझ मत उठा, तू तो भारी साड़ी उठा", कहकर मुस्कुराते हुए उसने सर झटक दिया। उसे अकेली ही ऐसा करते देख उसका पति विनोद, जो कुछ और काम कर रहा था, ने आंखों ही आंखों में पूछा "क्या हुआ?, तो वैसी ही मुस्कुराती आंखों से सविता ने कहा -"कुछ नहीं "। विनोद समझ गया कि उसकी पगली बीवी फिर कहीं खो गई होगी। जैसे-तैसे एक साड़ी पसंद कर वह जोड़ा वहां से चल दिया। 
 
साड़ी और नारी, और वह भी भारतीय नारी की सबसे बड़ी कमजोरी, एक-एक साड़ी पर प्यार से हाथ फेरती, कभी कपड़ा, तो कभी जरी को प्रशंसा के भाव से निहारती सविता का मन भी होता ऐसी महंगी साड़ी खरीदने को, हर वार-त्यौहार पर यह इच्छा बलवती हो जाती। मन ही मन न जाने कितनी ही बार अपने को महंगी, सुंदर साड़ियों में सजा लिया है उसने। इस बार कब से पैसे इकट्ठे कर रही थी कि दिवाली पर एक अच्छी साड़ी जरूर खरीदेगी, लेकिन हिम्मत नहीं हो रही थी अपने लिए पैसे खर्च करने की। सब हिसाब कर लिया था, "इस बार घर की पुताई भी करवानी है, दिवाली का खर्च अलग, बच्चों के कपड़े, स्कूल फीस, नहीं-नहीं हम दोनों तो राजवाड़ा की छोटी दूकान से ही सस्ते कपड़े खरीद लेंगे। महंगी साड़ी एक बार पहनो और बाद में देखते रहो, कितनी भी महंगी हो, हर बार एक ही साड़ी तो नहीं पहन सकते, और फिर सबका डुप्लीकेट मिलता है आजकल। कोई अच्छा रंग और ठीक-ठाक वर्क वाली सस्ती साड़ी ही ले लेगी वह तो। पैसे काम आएंगे ", सोच वह जल्दी-जल्दी साड़ी घड़ी करने लगी। साड़ियों की तरफ पड़ने वाली उसकी नजर, फिरने वाले उसके हाथ से उसकी भावना का अंदाज विनोद लगा रहा था। "क्या करे , शादी के बाद से कहां अच्छी साड़ी खरीद पाई वह, राखी, भाई दूज पर भी तो पैसे ही देती है मां। भाई तो कोई है नहीं, जरूरतें और महंगाई कभी कम नहीं हुई और कमाई कभी बढ़ी नहीं। अब हीरे की दूकान में काम करने वाला हीरा थोड़ी खरीद सकता है" वह रुआंसा हो गया। घर पहुंचकर देखा तो पड़ोसन चाची के यहां बच्चे पढ़ रहे थे। झटपट खाना बना, खाकर वे सोने चले गए। 
 
बच्चों के कपड़े खरीदे जा चुके थे, बजट बन गया था, हिसाब मिलाकर देखा, तो 1000-1500 तक की एक साड़ी वह ले सकती थी। 3000 रुपए उसने संभालकर रख दिए। लेकिन सुबह-सुबह पड़ोस वाली चाची के रोने की आवाज सुनी तो दौड़ पड़ी, पता चला उनका इकलौता जवान बेटा छत से गिर पड़ा था। दोनों पति पत्नी उसे अस्पताल ले गए। चाची का कोई था नहीं, सविता के बच्चों को उनकी अनुपस्तिथि में वही देखती थी, सो दोनों पति पत्नी ने उसका इलाज करवाया। चोट ज्यादा नहीं थी, सरकारी अस्पताल था, लेकिन फिर भी सविता की बचत कमाई और ऊपर से कुछ ज्यादा खर्च हो गया, अब तो वह सादी साड़ी भी शायद ही खरीद सके। मन समझाते बोली कोई बात नहीं, "भैया की जान बच गई, साड़ी फिर कभी।"  विनोद बोला -"तुम तो हो ही इतनी सुंदर कि  सादे कपड़ों में भी लोग तुम्हारे आगे पानी भरें", "चलो हटो" कह वह घर से निकल पड़ी। 
 
चार पांच दिन इसी में निकल गए वह दुकान भी नहीं जा पा रही थी। अब चाची के बेटे की हालात ठीक थी, घर पर ही था। आज चाची और भाई को चाय पिला वह दूकान चली गई, सोच रही थी "गरीबी में आटा गीला, मालिक पैसे काट लेगा", चाची उसे जाते देखती रही। दूकान पहुंची तो सबके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। साथ वाला बोला "जाओ जाओ मालिक बुला रहे हैं", समझ गए कि दि‍वाली की मिठाई देने मालिक बुला रहें होंगे। अंदर जा दोनों ने बुजुर्ग मालिक के पैर छुए तो मालिक ने मिठाई का डब्बा और एक लिफाफा पकड़ाया- "लो अपना बोनस"। दोनों एक दूजे का मुंह देखने लगे। " हां भाई इस बार से हम अपने कर्मचारियों को बोनस भी देंगे, लो और त्यौहार पर कोई तनख्वाह नहीं कटेगी"।
 
लिफाफा लेकर बाहर निकले, तो दोनों को ढाई-ढाई हजार रुपए मिले थे। दोनों खुशी से झूम उठे। दिनभर जमकर काम किया और सविता से बोला "अब अपनी मनपसंद साड़ी ले-ले।" वह बोली - "आज नहीं कल," मन ही मन वह कैसी साड़ी लेगी सोचती रही। "ठीक है जैसी तेरी मर्जी" वह बोला। रात को खुशी-खुशी लौटे देखा तो चाची ने खाना बना लिया था, सब को वहीं बुलाकर चाची ने खाना खिलाया। देर रात तक खटिया पर बैठ उनके ठहाके गूंज रहे थे। जब वे जाने लगे, तो चाची ने सविता को रोक टीका लगाया और एक पैकेट थमाया, सविता आश्चर्य से देख रही थी। चाची बोली- "खोल "। देखा तो केसरिया रंग की गोटे किनारे वाली साड़ी झिलमिला रही थी। वह अचकचा गई। तभी भैया बोला- "ना मत कहना बहना, तुम्हारा भाई इतना तो कर ही सकता है, अब कमाता हूं"। सुनते ही उसकी आंख से दो आंसू ढलक गए। विनोद ने चुपके से उसके कान में कहा, " मेरी एक्सस्क्लूसिव बीवी, तुम्हारी तो यह एक्सस्क्लूसिव दिवाली हो गई डार्लिंग। पैसे, साड़ी और भाई, वाह डार्लिंग।" और सविता रोते-रोते भी हंस पड़ी।

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