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बेटी पर कहानी : तीसरी

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हमें फॉलो करें बेटी पर कहानी : तीसरी
चेतना भाटी
 
जैसे ही पता चला तो खुश तो बहुत हुए दोनों। मगर एक फांस-सी भी चुभ ही रही थी कि ''अगर लड़की हुई तो?'' 
यह प्रश्न बडा भीमकाय था। पर्वत की तरह सामने खड़ा था रस्ता रोके। पहले से ही तो हैं दो-दो! और अब ऊपर से यह तीसरी भी हुई तो? 
 
हे भगवान ! सोचते ही उन्हें चक्कर-से आ गए जैसे। और तय हुआ कि शहर चल कर जांच करा ही ली जाए। बेकार में ही रिस्क क्यों लेना? खतरा क्यों उठाना? बेटा हुआ तो क्या कहने! किस्मत ही खुल जाएगी तब तो! और यदि लड़की हुई तो सफाया वहीं के वहीं। सुविधा तो है ही तो क्यों न फायदा उठाया जाए?
 
 (यह तब की बात है जब भ्रूण-लिंग-परिक्षण प्रतिबंधित नहीं था। तो हर गली-मोहल्ले में सोनोग्राफी सेंटर भी नहीं  थे। शहरों में ही थे, वह तो बैन होने के बाद ही......) और तुरत-फुरत शहर चलने की तैयारियां शुरू हुईं। सबसे पहले तो रेल में आरक्षण कराना था सीटों का। तो पता चला कि अभी तो सब बुक है इस पूरे महीने क्योंकि दिसम्बर में छुट्टियां होती है तो ट्रेनों में भीड़ ज्यादा होती है। जनवरी से पहले तो नही मिल सकती थी सीट। 

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'चलो कोई बात नहीं, अगले महीने ही चले जाएंगे'-- इन्हों ने भी लापरवाही से सोचा, सुविधा तो है ही....आखिर हम लोकतंत्र में रहते हैं और हमें मताधिकार मिला हुआ है। तो जिसे चाहें वोट दें और जिसे ना चाहें तो ना भी दें, तो क्या फर्क पड़ता है। (सुविधाओं के भी कैसे-कैसे दुरुपयोग होते है! ) और जनवरी के प्रथम सप्ताह में ही आ पाए शहर। यहां आ कर मालूम हुआ कि सरकार ने भ्रूण परिक्षण निरोधक अधिनियम लागू कर दिया है एक जनवरी से तो अब यह अवैध है, अपराध है। सजा भी हो सकती है पकड़े जाने पर। तो कोई भी तैयार नहीं हुआ इस हेतु वे अस्पताल-अस्पताल चक्कर काटते रहे। मामला चूंकि नया था अभी-अभी ही लागू हुआ था अधिनियम सो उससे कन्नी काटने के (बचने के उपाय ) गली-कूंचे अभी इजाद नही हो पाए थे। या अभी उतने विश्वसनीय-कारगर नहीं थे कि हर किसी पर आजमाए जाएं बिना परिक्षण के। लोग भी तो विश्वसनीय ही चाहिए थे न। 
 
अब तो बड़ी आफत-बड़ी मुश्किल में थी जान। ( हां इनकी जान, उस निरपराध नन्ही जान की तो परवाह ही किसे थी। उसकी जान लेने को तुले हुए थे अपनी जान बचाने को। ) करें तो क्या करें और कैसे? 'अगर लड़की हुई तो ?’’ यही आशंका उनके प्राण निकाले दे रही थी। गोया कि लड़की ना हुई इबोला वायरस हो गया। और उसे लड़की ही कहा जा रहा था लगातार! बेटी तक भी नही!
 
खैर अब तो हो ही क्या सकता था। गले पड़े ढोल को बजाना ही था। यह मुसीबत भी इसी समय आनी थी? काश ! कुछ पहले ही आ जाते। पिछले माह में ही,  तो तुरत-फुरत निपटारा हो जाता हाथों-हाथ। बेकार में ही आरक्षण के चक्कर में पड़े, अपने ही वाहन से आ जाते। और वह भी ना होता तो इतनी तो वीडियो कोच चलती है! लेकिन नहीं विनाश काले विपरीत बुद्धि --- ओह ! होनी को कौन टाल सकता है? जब किस्मत ही फूटी हो तो क्या हो सकता है ?..वगैरा-वगैरा आत्मालाप-प्रलाप..पश्चाताप...हर बार, बार--बार एक दीर्घ नि;श्वास के साथ। दिल था कि हौल खाए जा रहा था, बैठा ही जा रहा था उनका। दिल को दिलासा देने को तय हुआ की यदि लड़की हुई तो किसी को गोद दे देंगे। उनका भी भला और अपना भी भला। और घर-परिवार-नाते-रिश्तेदारों, मित्रों-परिचितों पर नजर घूमने लगी कि कहीं कोई नि:संतान दम्पति मिल जाए तो पाप कटे। वे भी खुश और अपन भी सुखी-प्रसन्न। कहीं-कहीं तो बात करके भी रखी कि कही कोई हो, गोद लेने का इच्छुक तो बताना। 
 
यूं ही दु;श्चिंता भरे दिन गुजरते गए। आखिर वह घड़ी भी आ पहुंची। और हुआ भी वही जिसका डर था। लड़की...तीसरी लड्की !!! ईश्वर ने भी क्या कहर बरपाया था! जो किसी भी तीव्रतम भूकम्प से कम विनाशकारी नहीं  था। उन्हें तो लगा कि सारी दुनिया ही समाप्त हो गई हो मानो। सृजन की नहीं विध्वंस की अनुभूति हुई उन्हें। जच्चा तो मानो मनोरोगी ही हो गई। उन्हें तो कोई सुध-बुध ही नहीं  थी जैसे बच्चे की। दोनो बड़ी बहनें ही जैसे-तैसे करके सम्भालती रही। मगर स्त्री बीज में भी गजब की जीजिविषा होती है! वह पल ही जाती है, जी ही जाती है तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी!  और अगर वह अनूकूल परिस्थितियों का इंतजार करे तो करती ही रह जाए। क्यों कि वह तो कभी होती ही नहीं अनुकूल। वह तो चल पड़ती है अपना रास्ता आप बनाते हुए। 
 
कुपोषित बच्ची शुरु में तो बीमार रही। इतनी कि उसका स्कूल में प्रवेश भी एक वर्ष देरी से हुआ। वह भी बड़ी  बहनो ने ही करवाया। उनके पीछे-पीछे जो चली जाया करती थी वह भी स्कूल।
 
खैर ! किसी तरह दिन बीतने लगे..‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌बोझिल, भारी-भारी...थके हुए-से। उस पर घर-परिवार-समाज की दया-सहानुभूति----च्च् ...च्च...च्च...बेचारी...तीन-तीन लड़किया !!! अब कैसे करेंगे ? विवाह का इतना खर्च कहां से जुटाएगें? और फिर वंश कौन चलाएगा? मुखाग्नि कौन देगा? बेटे से ही नाम रोशन होता है। दहलीज पर चिराग धरने वाला कोई नहीं! वगैरह-वगैरह।

लेकिन समय की नदी कब रुकी है किसी के रोके से? तो वह भी बहती रही और लडकियां भी बढ्ती रही। तो अब मुसीबतें भी क्यों रूकने वालीं थीं वे भी और बढ़ी। दया-सहानुभूति दर्शाने वाले समाज की अब भृकुटियां  तनने लगीं थी। कुछ इस अंदाज में कि मौका लगे तो अपन भी हाथ साफ कर ले बहती नदी में। अब उनके रहन-सहन, चाल-चलन पर टिप्पणियां की जाने लगीं, फब्तियां कसी जाने लगी। बिना पूछे भी खुद आ-आ कर, आगे हो-हो कर लोग बताते, बल्कि फोन कर-कर के भी कि कब कहां, किसके साथ उन्हें  देखा गया। वे क्या पहने थीं, क्या कर रही थीं? कैसे खड़ी थीं-बैठी थी। 'भाई तो है नहीं और पिता व्यस्त रोजी-रोटी जुटाने में। तो अब कौन नकेल कसे? खुली-छुट्टी घूमती रहती है मटरगश्ती करती हुई...''  
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 आदि-इत्यादि, बिल्कुल विस्तारपूर्वक तसल्ली से। जैसे उन्हें कोई और काम ही न हो या उन्हें नियुक्त ही किया गया हो सिर्फ इसी कार्य के लिए। खैर दिन तो गुजर ही जाते है जैसे भी हो। तो सूरज भी अपने समय से उदय-अस्त होता रहा। 
 
नया स्मार्ट फोन खरीदा था। सो उसे उपयोग करने की बारीकियां सीखने हम उनके पास गए। अब इस युग में तकनीकी के बिना गुजर नहीं, तो एक दूसरे के अनुभवों का लाभ उठाते रहते हैं इस विषय में बातचीत करते हुए। जरा-सा टच करते ही बल्कि उसके कुछ पहले ही जाने कहां-कहां तो पहुंच जाता है फोन! न जाने क्या-क्या और कैसी-कैसी ऐप्स खुलने लगती है! और हम घबरा ही जाते है इस गति से,तीव्रता से। हां, इस स्मार्ट्नेस से। तो सोचा जरा तसल्ली से बैठ कर एक बार जान ले सब इस आधुनिक तकनीक के बारे में। क्योकि जहां यह सब कुछ आसान बनाती है, आगे बढ़ने की राह खोलती है वहीं सब कुछ बर्बाद करने में भी देरी नहीं  करती यदि सही इस्तेमाल न करे तो। 

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यही सब करते-समझाते उन्होंने अपने स्मार्ट फोन पर वाट्स ऐप पर चला कर दिखाया। कुछ तस्वीरें  गुजरी नजर से और एक तस्वीर पर जा कर अटक गई नजर-'यह ? यह तो अपनी तृप्ति है न।‘’ तीसरी लड़की होने पर ईश्वर से गुजारिश की गई थी कि – अब बस, हम तृप्त हुए लड़कियों से तो अब हम पर कृपा करें, और लड़कियां न भेजें। और इसी प्रार्थना के प्रमाण स्वरूप इस तीसरी लड़की का नाम तृप्ति रखा गया था। उनकी ऐसी मान्यता थी कि जब तक आप तृप्ति का संदेश नही देगे ईश्वर समझेगा नहीं। काश ! दूसरी के समय ही रख लेते यह नाम तो तीसरी से बच सकते थे। 
 
'हां...वे धीरे से बोले, जैसे अपराध हो गया हो बड़ा...अभी बारहवी कक्षा में अपने संभाग में टॉप किया है इसने 91 प्रतिशत अंक ला कर। तो फोटो अखबार में छपी थी सो उन्होंने वाट्स ऐप पर भेजी है। बस कुछ ही नंबरों से रह गई वर्ना प्रदेश में ही टॉप करती।'' 
 
---आवाज उनकी धीमी, भारी-भारी थी जो हमेशा किलकती-सी ऊंची-उत्साहित रहती थी जब वे उनके चाल-चलन पर फब्तियां कसते थे। फोन कर करके उसके चरित्रहीनता के बारे में बताते थे चटखारे ले-ले कर।
 
'मगर बारहवीं का परीक्षा परिणाम आए तो काफी समय हुआ, बल्कि महीनों हुए। और इतनी बड़ी खुशखबर उन्हें  बताई भी नहीं गई! वह तो अभी अचानक ही पता चली। उन्होने ही कहां बताई थी अभी भी। ‘’--- अचंभे में पड़े सोचते हुए भी मन में एक लहर-सी उठी खुशी की .... ‘’ लड़की ने नाम रोशन कर दिया खानदान का, माता-पिता का !!!’’ 
 
लेकिन इस लहर के नीचे दर्द की, दुख की गहराई बहुत ज्यादा है .....'स्त्री को उसके कार्य की सराहना-प्रशंसा  क्यों नहीं मिलती? और यदि कुछ पहले ही इसकी भी 'सफाई' करा दी जाती तो? आज इतनी प्रतिभावान छात्रा कहां होती? और जिन्हें 'साफ' करवा दिया गया उन प्रतिभाओं का क्या?'  
     कितने प्रश्न खड़े हैं कैक्टस की तरह,  अपने कांटों से लहुलुहान करते, इस मन के विशाल रेगिस्तान में !!!!!!!!!!

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