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लघुकथा : वे अबोध

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आशुतोष झा
 
स्थान - कानपुर से देहरादून के बीच का कोई छोटा स्टेशन.
समय : सुबह के लगभग 9 से 10 बजे
 
रेलगाड़ी धुआं उड़ाती और विविध हरीतिमा से परिपूर्ण खेत, घर इत्यादि नयन सुरम्य दृश्यों को पीछे धकेलती हुई आगे के घुमावदार  मार्ग पर किसी ग्रामीण युवती सी चली जा रही थी। रेलगाड़ी के द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में ऊपर की शायिका पर मैं पास ही बैठे एक भैया के साथ जा रहा था। 

थोड़ी ही देर में एक स्टेशन से डिब्बे में दो छोटे बच्चों का प्रवेश हुआ। मासूम किन्तु गंदा चेहरा, फटे कपड़े ,एक ढोलक और एक छोटी ढपली। वे कोई फिल्मी गाने पर गाते और थोड़ा सा ठुमका लगाते थे। 
 
लोग उन्हें कुछ देने से ज्यादा देखने-हंसने और मज़ाक उड़ाने में काफ़ी रूचि ले रहे थे। वे भी कुछ देर तक मांगते और फिर आगे बढ़ जाते शायद उन अबोध आंखों में वह दिव्य शक्ति नहीं थी जो लोगो के हृदयों में स्थित स्वार्थ को पिघला पाती। 
 
तभी एक सज्जन जो की वेशभूषा और हावभाव से 'सभ्य समाज रुपी भवन में कोने में पड़ी हुई श्वेत मूर्ति की तरह लग रहे थे' ने उन बच्चों को बुलाया। 
 
पास आने पर उनसे अपना मनपसंद गाना सुनने की मांग की और कहा- नाचो... 
वे परमपिता परमात्मा के हाथों की डोर से नहीं अपनी भूख से रुक चुके भविष्य की रोशनी को जलाए रखने के लिए नाचे.........
 
फिर उन्होंने अपने छोटे हाथ आगे पसार दिए ......
सज्जन इंसान ने जेब में हाथ डाला फिर कहा , "खुले पैसे नही हैं आगे जाओ... 
 
अबोधों के चेहरे पर एक अपूर्तिपूर्ण प्रश्न चिन्ह था .....???????
वे एक क्षण रुके और आगे बढ़ गए
 
मैंने वह दृश्य पहली बार नहीं देखा था, जब की कोई भिखारी भीख न मिलने से चला जाता है लेकिन खेलने-कूदने-पढ़ने की उम्र में भीख मांगने पर भी उन्हें भीख न मिलने पर मेरी आंखों से आंसू न निकले, मेरा हृदय रो पड़ा...मैं कुछ न किसी से कह सका...अपने हरे जख्म किसी को न दिखा सका। 
आशुतोष झा
 (8953810887)
G1T-74 अरमापुर स्टेट,कानपुर, उ.प्र.

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