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लघुकथा : अंतस का अंतर्द्वंद्व

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आलोक कुमार सातपुते

वह बस में बैठा मूंगफल्ली खा रहा था। थोड़ी देर बाद बस चल पड़ी। अगले स्टॉप पर एक महिला अपने दुधमुंहे शिशु के साथ बस में चढ़ी, लेकिन बस में भीड़ हो जाने की वजह से वह खड़ी ही रही। वह सोचने लगा कि लोगों में मैनर्स नाम की चीज जरा भी नहीं रह गई है। कोई भी उठकर उस बेचारी को जगह नहीं दे रहा है। क्या जमाना आ गया है...छीं।

तभी उसे उसके अंतस ने कचोटा... - तुममें यदि मैनर्स हैं, तो तुम खुद ही खड़े होकर उसे जगह क्यों नहीं दे देते? उसने अपने अंतस को समझाने का प्रयास किया- मैं तो खड़ा हो जाता, पर क्या करुं, खड़े होने पर मेरे जोड़ दुखने लगते हैं।

उसी समय उस महिला की याचनापूर्ण दृष्टि उस पर पड़ी। उसने नजरें चुरा ली। तभी उसके अंतस ने कहा - अब नजरें क्यों चुरा रहे हो ? उसने फिर अपने अंतस को समझाने का प्रयास किया - खड़े रहने पर जेब कटने की संभावनाएं अधिक होती हैं और चूंकि मेरी जेब में पैसे भी बहुत है, इसलिए मैं चाहकर भी खड़ा होकर उसे जगह नहीं दे पा रहा हूं।

इस अंतर्द्वंद्व के बीच उस महिला की मंजि‍ल आ गई और वह उतर गई। अब उसने फिर अपने अंतस को समझाने का प्रयास किया- मैं तो खड़ा होकर उसे जगह देने ही वाला था कि, वह उतर गई । अब अंतस की आवाजें आनी बंद हो गई थी। शायद वह परास्त हो गया था।

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