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लघुकथा : परित्यक्ता

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डॉ मधु त्रिवेदी

जुम्मे-जुम्मे उसने बारह बसंत ही देखे थे कि पति ने परस्त्री के प्रेम-जाल में फंसकर उसे त्याग दिया। उसका नाम उमा था। अब उसके पास दो साल की बच्ची थी जिसके लालन -पालन का बोझ उसी पर ही था, साथ ही सुनने को समाज के ताने भी थे। मर्द को भगवान ने बनाया भी कुछ ऐसा है जो अपने पर काबू नहीं कर पाता और फंस जाता है पर स्त्री मरीचिका में। बंधन का कोई महत्व नहीं। प्रेम भी अंधा होता है, लेकिन इतना भी नहीं कि अग्नि को साक्षी मान कर जिस स्त्री के साथ सात फेरे लिए हैं उस बंधन को भी तोड़ डाले।
               
धीरे-धीरे बच्ची बड़ी होती गई। बच्ची का नाम उज्जवला था, साफ वर्ण होने के कारण मां ने उसको उज्जवला नाम दिया था। जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही वह और भी सुंदर लगने लगी। लेकिन अपनी इस सुंदरता की ओर उसका बिलकुल ध्यान न था। यह सुंदरता उसके लिए अभिशाप बनती जा रही थी। चलते फिरते युवकों की नजरें उस पर आकर सिमट जाती थी।
         
सामान्य लड़कियों से भिन्न उसे गुड्डे-गुड़ियों के खेल कदापि नहीं भाते थे। प्रकृति के रमणीय वातावरण में जब उसकी हम उम्र लड़कियां लगड़ी टांग कूद रही होती थीं, गुटके खेल रही होती थीं, वह किसी कोने में बैठी अपनी मां के अतीत को सोच रही होती थी, कि कहीं ऐसी पुनरावृत्ति उसके साथ न हो और भय से कांप उठती थी ।
 
मलिन बस्ती में टूटा-फूटा उसका घर था। लोगों के घर-घर जाकर चौका बर्दाश्त करना उनकी आय का स्रोत था। मां बच्ची को पुकारते हाथ बंटाने के लिए कहा करती थी। बेटी कहा करती थी, मां 'मुझे होमवर्क' करना है। मां की स्वीकरोक्ति के बाद बेटी उज्जवता पढ़ने बैठ जाती। बच्ची पास के निशुल्क सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाया करती थी, किताब कॉपी का खर्च स्कालरशिप से निकल जाता था।   
 
धीरे-धीरे मां की आराम तंगी को समझ बेटी ने ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरू कर दिया। मेट्रिक की परीक्षा पास करते ही मां उमा को ब्याह की चिंता सताने लगी। परित्यक्ता होने के कारण बेटी के साथ बाप का नाम दूर चला गया था, लोग गलत निगाह से देखते थे। इसलिए जब मां घर से दूर होती, तो उज्जवला को अपने साथ ले जाती ।
      
उमा को भय था कि उसकी बेटी उज्जवला भी अपनी मां की तरह घर, परिवार एवं समाज से परित्यक्त न हो। इसलिए हर पल उज्जवला का ध्यान रखती थी क्योंकि पति के छोड़ने के बाद जितना तन्हा और और अकेला महसूस करती थी, उसकी कल्पना मात्र से कांप उठती थी। पति के छोड़ने के बाद सास-ससुर ने भी घर से निकाल दिया था। अतः दुनिया में कोई दूसरा सहारा न था। मां-बाप तो दूध के दांत टूटने से पहले ही राम प्यारे हो गए थे ।
उसे खुद अपना सहारा बनने के साथ बेटी का सहारा भी बनना था।
      
उज्जवला की सुंदरता भी किसी अलसाए चांद से कम न थी, पर इस सुंदरता का पान करने वाले मौका परस्ती भी कम न थे। इसलिए मां उमा डरती थी कि उसकी बेटी कहीं जमाने की राह में न भटक जाए ।
 
अपनी यौवनोचित चंचलता को संभालते हुए उसने आत्मनिर्भर बनने की कोशिश की, अतः उसने पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया। अब मां -बेटी के जीवन में नया मोड़ आ गया था। अब उसकी मां को लोग "मैडम जी की मां के नाम से पुकारते थे। इस तरह समाज में उसका नया नामकरण हो चुका था । अब उसके रिश्ते भी नए आने लगे थे, लेकिन मां से जुदा होने के अहसास के साथ उज्जवला को कोई रिश्ता कबूल नहीं था ।
 
मां उमा का शरीर जर्जर हो चुका था इसलिए उसकी इच्छा थी कि उसकी बेटी शीघ्र ही परिणय सूत्र में बंध जाए। लेकिन बेटी जब विवाह की बात चलती, तभी "रहने दो मां, तुम भी" कहकर इधर-उधर हो जाती" थी। इसलिए मां ने एक सुयोग्य वर देखकर उज्जवला का विवाह कर दिया। बेटी के जाते ही मां फिर से नितांत अकेली हो गई थी।

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