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लघु कहानी : अपराध बोध...

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देवेन्द्र सोनी

रमा कई दिनों से अपने पति सुरेश को बेचैन देख रही थी। दिन तो कामकाज में कट जाता, पर रात को उसे करवटें बदलते रहने का कारण समझ नहीं आ रहा था। वह हरसंभव अपने पति को खुश रखने का प्रयास करती, पर नतीजा सिफर ही रहता। कई बार उसने रमेश से कारण जानना चाहा, पर वह टालामटोली कर जाता और भरसक प्रयत्न करता कि रमा को इस तरह का कोई एहसास न हो। लेकिन उसकी बेचैनी और अनिद्रा का उस पर वश नहीं था। 
 
कुछ दिन तो रमा ने यह सोचकर तसल्ली रखी कि हो सकता है कि रमेश अपने कामकाज की वजह से परेशान हों और उसे अपनी परेशानियों में शामिल नहीं करना चाहते हों। मगर जब नित्य ही यह स्थिति बनने लगी तो रमा अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित हो उठी। उसे लगने लगा कि जरूर सुरेश की जिंदगी में किसी और ने अपना स्थान बना लिया है। धीरे-धीरे इस विचार से दोनों के बीच संवादहीनता पसर गई। 
 
सुरेश तो परेशान था ही, अब रमा भी अवसाद में आ गई। दोनों बच्चों पर भी इसका असर पड़ने लगा और वे भी बात-बात पर झल्लाने लगे। पारिवारिक स्थिति जब अनियंत्रित होने लगी तो एक दिन रमा ने सुरेश से कहा- आखिर ऐसा कब तक चलेगा? यदि मुझसे मन भर गया है तो मुझसे कह दो। इस तरह तो मेरी और बच्चों की जिंदगी ही बरबाद हो जाएगी। तुम अपनी सेहत का भी ध्यान नहीं रख रहे हो। कैसे और कब तक चलेगा यह सब?
 
रमा की बातें सुनकर सुरेश फफक पड़ा। बोला- ऐसा कुछ नहीं है रमा। तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो? हां, इन दिनों मैं बहुत परेशान हूं। एक ऐसे अपराधबोध से ग्रस्त हूं जिसने मेरे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा दी है। अपराध भी ऐसा, जो मुझसे अनजाने में या अनदेखी में हो गया। बस, उसी अपराधबोध ने मेरा यह हाल कर दिया है।
 
सुरेश के आंसू पोंछते हुए रमा ने पूछा- आखिर ऐसा क्या हो गया है। 
 
तब सुरेश बोला- रमा, एक दिन मैं अपने मित्र को देखने अस्पताल गया था। वह कई दिनों से बीमार था। उसके बिस्तर के पास ही एक दो-तीन साल का बच्चा भी भर्ती था, जो किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित था। मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
 
अस्पताल में तो जाने कौन-कौन भर्ती रहते हैं। तभी डॉक्टर से सुना था कि उस बच्चे को रक्त की तुरंत जरूरत है। जिस ग्रुप की उसे जरूरत थी वह कहीं नहीं मिल रहा था लेकिन मेरा ब्लड ग्रुप वही था। यह जानते हुए भी कि यदि उस बच्चे को ब्लड नहीं मिला तो उसका बचना नामुमकिन है। पता नहीं मुझे डॉक्टर से यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं हुई कि आप मेरा ब्लड लेकर इसकी जान बचा लीजिए। मैं वापस घर आ गया लेकिन जब दूसरे दिन अस्पताल गया तो पता चला कि वह बच्चा तो चल बसा। बस, यही अपराधबोध मुझे खाए जा रहा है। मेरी नादानी से एक बच्चे की मौत हो गई। मैं चाहता तो किसी का चिराग बच सकता था रमा। हां रमा, मैं ही जिम्मेवार हूं उस बच्चे की मौत का। मुझे उस दिन रक्तदान करना चाहिए था। यह कहकर सुरेश बिलख-बिलखकर रो पड़ा। 
 
सारी बात समझकर रमा ने सुरेश को सांत्वना देते हुए कहा- 'हां सुरेश, यह तो वाकई बहुत बड़ी भूल हो गई तुमसे, पर यह कोई अपराध नहीं। फिर भी यदि तुम इसे अपराध मानते हो तो प्रायश्चित तो करना ही चाहिए और तुम्हारे इस प्रायश्चित में मैं भी तुम्हारा साथ दूंगी। अब से अपने बच्चों के हर जन्मदिन पर रक्तदान करके हम प्रायश्चित करेंगे। कहते हैं न कि ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिए ही करता है। अब आपका यह अपराधबोध अनेक जरूरतमंदों की मददगार होगा।' 
 
यह कहकर रमा ने सुरेश को अपने आगोश में ले लिया।  

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