'हमें लगता है समय बदल गया, लोग बदल गए, समाज परिपक्व हो चुका। हालांकि आज भी कई महिलाएं हैं जो किसी न किसी प्रकार की यंत्रणा सह रही हैं, और चुप हैं। किसी न किसी प्रकार से उनपर कोई न कोई अत्याचार हो रहा है चाहे मानसिक हो, शारीरिक हो या आर्थिक, जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्योंकि शायद वह इतना 'आम' है कि उसके दर्द की कोई 'ख़ास' बात ही नहीं। प्रस्तुत है एक ऐसी ही 'कही-अनकही' सत्य घटनाओं की एक श्रृंखला। मेरा एक छोटा सा प्रयास, उन्हीं महिलाओं की आवाज़ बनने का, जो कभी स्वयं अपनी आवाज़ न उठा पाईं।'
रिपोर्टिंग
दृश्य 1: फ़ोन की घंटी बजती है
फ़ोन क्यों नहीं उठाया तुमने दस मिनट पहले, एना? कहां बिज़ी हो?
ऑफिशियल मीटिंग में थी, आदि... तुमने आज फ़ोन कैसे कर लिया?
तो मीटिंग कब खत्म हुई?
अभी आधे घंटे पहले...
तो मैंने दस मिनट पहले फ़ोन किया था, उठाया क्यों नहीं?
एक कलीग बैठे थे केबिन में... बोलो तुम क्या हुआ?
20 मिनट पहले भी लगाया था, वेटिंग था फ़ोन तुम्हारा...
हां, दूसरे डिपार्टमेंट से फ़ोन था... कहो क्या हुआ... ऐसे तो कभी फ़ोन नहीं लगाते हो?
फालतू बात छोड़ो... कामवाली आज नहीं आएगी, उसकी लड़की बोल के गयी है, बस वही बता रहा था... मैं तुम्हारे शाम को घर आने से पहले टूर पर निकल जाऊंगा... फ्लाइट है मेरी 4 बजे...
कौनसी फ्लाइट से जा रहे हो?
देखता हूं... तुम पैकिंग कर के तुम्हारी मम्मी के यहां चले जाना 4 दिन... यहां अकेले फ्लैट में रहने का मतलब नहीं
कितनी बजे लैंड करोगे? कहां रुकोगे वहां?
अभी कुछ तय नहीं है... ऑफिस वाले करेंगे बुकिंग... तुम रखो फ़ोन...
ऐसे कैसे अभी तक तय नहीं है? सुबह तक तय नहीं है दोपहर में कौनसी फ्लाइट से जाओगे और कहां रुकोगे?
तो अब क्या करूं? चलो रखो तुम फ़ोन... मीटिंग है मेरी... निकल जाना तुम भी...
ठीक है... खाना खा लिया तुमने?
खाऊंगा अब... तुमने?
बस अब खाऊंगी, मीटिंग में थी इसलिए देर हो गई .
तो एक घंटे से क्या कर रही हो? लंच-टाइम तो निकल गया...
एक-एक मिनट का क्यों हिसाब कर रहे हो? खाती हूं अब...
ज़रूरी है तुम्हारा हिसाब हर एक पल का मेरे लिए... रखो अब फ़ोन एना
दृश्य 2: तीन दिन बाद फ़ोन पर
आदि! हो कहां तुम? मैंने मेसेज किये, तुम जवाब नहीं देते... फ़ोन करूं तो तुम उठाते नहीं... कौनसे होटल में हो, साथ में कौन गया है, किस लोकेशन पर हो... कोई खबर ही नहीं है...
एना! बिजी रहता हूं मैं, बीच मीटिंग में क्या तुम्हारा फ़ोन उठाऊं? ज़रा भी अंडरस्टैंडिंग नहीं हो तुम...
आदि, तीन दिन हो गए हैं... दिन में एक बार तो फ़ोन या मेसेज खुद कर सकते हो? पहली बार तो है नहीं, हर बार ही तुम्हारे टूर ऐसे ही होते हैं... कल तुम्हारा फ़ोन बंद था... चिंता रहती है... कहां से पता करूं ऐसे में की ठीक हो या नहीं? तुमने किसी कलीग का भी नंबर नहीं दिया, बताया नहीं कहां रुके हो... कुछ इमरजेंसी हो तो कैसे बात करूं?
क्या इमरजेंसी? तुमको क्या होगा? मायके में ही तो हो अपने, ठीक ही होगी... और बार-बार क्या हिसाब ले रही हो तुम? और एक बार साफ़ तरीके से सुन लो तुम एना! मुझे आदत नहीं कि मैं हर पल की रिपोर्टिंग करूं किसी को भी ... पसंद नहीं मुझे... आया समझ?
शादी ही नहीं, हर रिश्ता आपसी देख-रेख, भावनाओं पर आधारित होता है। क्या आपने सिर्फ इसलिए शादी कि, की आप पत्नी से पीछा छुड़ा कर बाहर जा सकें? या इसलिए कि उसकी भावनाओं को न समझें? रिश्तों में स्वतंत्रता देना आवश्यक है, लेकिन स्पेस देने और जानबूझ कर नज़रंदाज़ करने में ज़मीन-आसमान का फर्क है। इस कही-अनकही बातों के घावों से उबरने में ज़िन्दगी गुजरने से तो बेहतर होता शादी ही नहीं की होती।