राजनारायण बोहरे
आसमान में हलके से बादल थे। श्वेत-धवल बादल। धूप में खूब गर्माहट थी, लेकिन हवा सुरीली (ठंड़ी) थी। यह बसंत का मौसम था। सर्दी जा रही थी और गर्मी की पदचाप माहौल में गूंज रही थी। टैंपो घरघराता हुआ परेश के एकदम पास से गुजरा, तो वह चौंक गया। उसे लगा था कि किनारे पर बैठी लड़की वही है- वही यानी मधु। मधु के लिए ही तो वह जबलपुर आया है।
मधु उसकी क्या लगती है ? यदि कोई उससे पूछे, तो वह टाल जाएगा। रिश्तों के कोष में ऐसा कोई उपयुक्त शब्द नहीं है जो उनके संबंधों को ठीक-ठीक पहचाने। वैसे भी बड़े भाई की साली से छोटे भाई का क्या रिश्ता हुआ ? इस का जब वह तलाशता है, तो उसे निराशा ही हाथ लगती है। कुछ आगे जाकर संयोग से वह टैंपो रूक गया था। परेश लंबे डग रखता हुआ उधर ही लपका। परेश ने उस कन्या को अब ठीक ढंग से देखा और खुद पर हंसा-धत्तेरे की, यह तो कोई और है। वह पलटा और रेस्ट-हाउस की ओर चल पड़ा।
जबलपुर आए उसे तीन दिन हो चुके है। इन तीन दिनों में सोते-जागते, उठते-बैठते उसकी आंखों के सामने एक ही चेहरा आता रहा है - मधु का, और उसके मन-मस्तिष्क में एक ही नाम गूंजता रहा है- मधु, मधु मधु। जाने क्यों उसे यह भी लगता रहा है कि जबलपुर में मधु से उसकी मुलाकात घर पर जाने से पहले यूं ही कहीं बाजार या चौराहे पर आते-जाते होगी। घर जाना तो बाद में होगा। उसने मन-ही-मन वे डायलॉग सोच रखे हैं, जो अन्यत्र अनायास मिल जाने पर वह पूरी नाटकीय भाव-भंगिमा के साथ मधु से बोलेगा। उन्हें सुनकर जरूर ही मधु अनुकूल प्रतिक्रिया करेगी। परेश का भोला मन इसी आशा में है।
मधु की बड़ी बहन क्षिप्रा का ब्याह दो वर्ष पहले हुआ है, वह अपनी ससुराल जा चुकी है- सो मधु अकेली है। दोनों बहनें ऐसी मुंहफट और बोल्ड हैं कि मां-बाप को लड़का न होने की कमी नहीं अखरने दी, उन दोनों नें । अब मधु कुछ सुस्त-सी हो गई है, यहां आते वक्त परेश का क्षमा भाभी ने बताया था।
परेष पर्यटन विभाग में है। जबलपुर आते वक्त वह सरकारी टूर बना लाया है। टूरिज्म के रेस्ट-हाउस में ठहर के उसने ये तीन दिन बिताए हैं, ताकि पहले वह इत्मीनान से अपना सरकारी काम निपटा सके। बाद में तो वह होगा और होगी मधु। तब काम-धंधे की फिकर कौन करेगा! वह काम से मुक्त व निश्चिंत होकर मधु के साथ घूमना चाहता है, क्योंकि मधु के यहां पहुंचकर शायद वह सब कुछ भूल जाए, जैसा कि पिछली मुलाकातों में हुआ।
मधु से परेश की पहली मुलाकात दो वर्ष पहले सोलह जून को दमोह में हुई थी। जहां कि परेश के बड़े भाई दिवेश की बारात गई थी। मधु उस शादी में मौजूद थी, और होती भी क्यों न, उसकी सगी ममेरी बहन की शादी जो थी। क्षमा भाभी मधु के मामा की लड़की है, इसी कारण दमोह में मधु न केवल मौजूद थी, बल्कि खूब बनी-ठनी सबके आकर्षण का केंद्र भी थी। वह शरारतों में तो शुरू से ही अव्वल रहती आई है। शादी की रस्मों के दौरान उसकी शरारत का पहला निशाना बना था-परेश।
टीका के वक्त दूल्हा बने दिवेश भैया जब ‘मड़वा मारने‘ अपनी ससुराल के आंगन में प्रविष्ट हुए तो परेश भी कौतूहलवश उनके साथ चला गया था। मंडप के नीचे आंख मूंदे दुल्हन बनी खड़ी क्षमा भाभी ने मंडप पर बीजना (बांस का पंखा) फेंकते दिवेश भैया पर अक्षत उछाले थे, ठीक तभी उनके पास से एक जुमला और उछला था- अरे, दूल्हा तो अपने साथ एक डुप्लीकेट लाया है, शायद सौतेला भाई है।
परेश की शक्ल-सूरत और कदकाठी दिवेश भैया से हू-ब-हू मिलती है, अतः तय था इस फिकरे का लक्ष्य वहीं था। यह कमेंट सुनकर उसने भाभी के पास खड़ी युवतियों को घूरना शुरू किया और अन्य युवतियों से फिसलती उसकी नजर जब मधु पर पड़ी, तो वह शरारत से मुस्कुराती नजर आई थी। चौकन्नी आंखें, गोल मुखड़ा, सुतवां नाक और अजंता की मूर्ति-सा तराशा बदन यानी कि ’कुछ खास है’ वाला टेलीविजन का विज्ञापन स्लोगन मधु पर पूरा सही बैठता था। अचानक किसी ने टहोका था, तो वह लुटा-लुटा-सा मंडप के नीचे से लौट आया था, मन में वह चेहरा बसाए। यह तो बाद में पता लगा कि उसका नाम मधु है।
बाद में जयमाला लिये भाभी को संभालती मधु मंच की ओर आती दिखी, तो परेश लपककर दिवेश भैया के पास जा खड़ा हुआ था। भाभी के साथ ही मधु भी मंच पर चढ़ आई थी। और अब वह ठीक उसके सामने थी, भाभी के पीछे से झांकती हुई।
दूल्हा-दूलहन ने परस्पर जयमालाएं पहनाई, और तालियां बज ही रही थीं, कि दिवेश भैया के एक मित्र ने चिल्लाकर उसे संबोधित किया, ’’परेश, तू भी पहना दे यार एक वरमाला, उस पीछेवाली को।’’
मधु लजा गई थी और परेश तो पानी-पानी हो गया था - ताड़नेवाले सचमुच कयामत की नजर रखते हैं। वह मंच से नीचे उतरकर पीछेवाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया था। मंच पर ग्रुप फोटोग्राफ हो रहे थे। इसके बाद दूसरी रस्में होने लगीं। कुछ पल के लिए परेश का ध्यान मधु से हट गया, उसे पिताजी ने गहनों का सूटकेस सौंप दिया था।
आधी रात हो गई थी। प्रायः सभी बराती डेरा (जनवासे, विश्राम-गृह) में लौट चुके थे। और परेश क्षमा भाभी के घर के सामने ही सूने पंडाल में एक कुर्सी पर बैठा अकेला बोर हो रहा था, कि अचानक ही किसी काम में उलझी मधु बाहर निकलती दिखी। परेश की सुस्ती काफूर हो गई थी। वह तत्परता से उठा और मधु से बोला- ’’ एक्सक्यूज मी मैडम, एक मिनट रूकेंगी, आप ?’’
मधु हकलाती-सी बोली, ’’ज्ज जी कहिए!’’’’ तो दूल्हे के डुप्लीकेट की बात आप कर रहीं थी। ’’ परेश उसकी छटपटाहट का मजा लेते हुए बोला था और मधु की आंखें धरती पर जा चिपकी थी। अचानक तभी कुछ और युवतियां भी वहां आ गई थीं। वे सब भाभी की सेहेलियां थी। परेश का तभी पता लगा था कि उस युवती का नाम मधु है और वह क्षमा भाभी की बुआ की बेटी है। मधु ने भी जाना था कि वह दूल्हा का छोटा भाई परेश है, जो सागर यूनिवर्सिटी से इतिहास में रिसर्च कर रहा है।
फिर तो वह रात उन लोगों की चहचहाहट में पलक झपकते-सी बीत गई। बिलकुल तड़के ही भाभी की सब सखियां खिसकने लगी थीं। अंत में वहां मधु और परेश ही बचे थे। नितांत अकेले। मधु की प्यासी-सी आंखें परेष को आमंत्रण-सा देती मिली थी। परेश ने संजीदा होते हुए कहा था, ’’मधुजी, आप सचमुच बहुत खूबसूरत है। आप बहुत पसंद आई मुझे। मेरे लिए तो भैया की ये शादी खूब यादगार रहेगी।’’
आप खूब अच्छे डायलॉग मार लेते है, जीजाजी। मधु ने उसकी संजीदगी को अपनी निष्छल आवाज से छिन्न-भिन्न कर दिया था और परेश लुटा-पिटा-सा उसे देखता रहा था। वह उठकर गुनगुनाते हुए भीतर की ओर चल दी थी और उसकी मादक चाल देखकर परेश जाने कहां खो गया था। बारात विदा होते वक्त मधु परेश से केवल इतना बोली थी - जल्दी ही जबलपुर आइएगा। हम इंतजार करेंगे।
परेश तो दो-चार दिन बाद ही जबलपुर के लिए सूटकेस जमा रहा था। क्षमा भाभी ने उसका उत्साह क्षीण कर दिया। वे खिलखिलाती हुई बोली थीं कि भैयाजी आप सचमुच बहुत भोले हो। मधु आपको बेवकूफ बना गई। कोई गलतफहमी मत पालिए मन में। मधु हरेक को ऐसे ही हवा देती है। ये तो स्वभाव है उसका।
परेश को भाभी की बातों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ था, पर उसकी जबलपुर यात्रा टल गई थी।
इस बीच परेश की नौकरी लग गई। पर्यटन विभाग ने उसे पहली पोस्टिंग ओरछा में दी थी। कुछ दिन वह बोर हुआ, फिर ओरछा के इतिहास और रायप्रविण की प्रणयगाथा जानकर उसका मन वहां के खंडहरों और वीरान नदी-तटों में बहलने लगा। विदेशी पर्यटकों को वह रस ले-लेकर राजा इंद्रजीत और रायप्रवी की मोहब्बत के किस्से सुनाता। हर बार उसका मन जाने क्यों तड़प उठता-यह प्रेम कहानी सुनाते-सुनाते।
परेश की दूसरी मुलाकात सागर में हुई थी मधु से, क्षमा भाभी की मौसी की लड़की की शादी में। मधु ने सागर पहुंचते ही परेश को बुलाकर कहा था, ’’देखो यार जीजाजी, हम तो इस शादी में केवल आपसे मिलने आए हैं। आप आज बहुत स्मार्ट लग रहे है। क्या बात है, कहीं शादी-वादी हो रही है क्या ? या कहीं लाइन मारने जा रहे हो !’’
यह सुनकर वह पुलक उठा था। फिर उन दोनों ने एक कोना तलाश लिया था और बातों में डूब गए थे। परेश की रूचि, आदतें और आमदनी से संबंधित सैकड़ों सवाल पूछती रही थी मधु। एक बार तो वह अचानक खड़ी हुई और परेश को उठाकर खुद की लंबाई नापने लग गई थी। चेहरे पर गाढ़ी मुस्कराहट लाकर वह फुसफुसाई थी- चलो यार, लंबाई वाली दिक्कत भी हल हो गई। मधु की आंखों की प्यास और आमंत्रण उसे कायल कर देता है।
वह मधु की ओर मुग्ध भाव से निहारता रह गया था। बाद में उसने मधु को सागर शहर घुमाया था अपने स्कूटर पर बैठाकर, और मधु के ना-ना करते हुए भी एक सलवार-सूट खरीद के उसे प्रेजेंट में दिया था।
परेश ने देखा कि उस शादी में सब युवकों के आकर्षण का केंद्र थी मधु। हर लड़का मधु से बात करना चाहता था, उसकी सेवा करना चाहता था। रात में मधु को एकाध लड़के से मुस्करा के बात करते देखा, तो परेश ने उसे उलाहना दिया। जवाब में मधु ने उलटा परेश को ही ताना मारा था कि जब इतनी चिंता है तो मेरे पास रहो न हरदम! ऐसा संभव नहीं था, उचित भी नहीं था।
जबलपुर के लिए बस में बैठ रही मधु खूब प्रसन्न थी, जबकि परेश क्षण-क्षण गंभीर हो रहा था। मधु उससे बोली थी - अब तो जबलपुर आओगे न!
हां, जरूर आऊंगा।
क्षमा भाभी को पूरा किस्सा सुना कर जब परेश बोला कि आपकी बात झूठी हुई। मधु सचमुच मुझे चाहती है। तो भाभी पूर्ववत् अपनी बात दोहराती रहीं थी। उन्होंने चंदू का किस्सा सुनाया था परेश को। मधु की सगी बड़ी बहन क्षिप्रा का देवर चंदू ऐसा ही दीवाना हो गया था-मधु का। वह कई बार जबलपुर जाता था और जब एक बार सिनेमाहाल में अंधकार में उसने मधु को जरा-सा छू-भर लिया, तो मधु तमक उठी थी और चंदू के गाल पर वो तमाचा लगाया था कि शर्म और लज्जा में डूबा चंदू सदा के लिए जबलपूर छोड़ भागा था।
कुछ क्षण के लिए परेश परेशान हो उठा था, चंदू का किस्सा सुनकर। लेकिन मन पर किसका वश है ? उसके मन ने तुरंत ही नया तर्क गढ़ लिया था- गलती चंदू की ही थी उस घटना में। शरीफ घराने की लड़कियां ऐसी हरकतें भला कहां सहन कर सकती हैं? और फिर कहां मधु, कहां दुबला-पतला टिंगू मास्टर चंदू। दोनों की कोई जोड़ी ही न थी। बेरोजगार चंदू की औकात कहां थी मधु की इच्छाएं पूरी करने की ? हां, परेश हर नजर से मधु के लायक है।
कश्मीर की अशांति के घबराए पर्यटक उन दिनों खजुराहों और ओरछा की ओर भारी संख्या में आना शुरू हुए, तो परेश को व्यस्त होना पड़ा और उसे छुट्टियां ही नहीं मिलीं। इस कारण फिर से उसकी यात्रा टल गई थी।
मधु से तीसरी मुलाकात इंदौर में हुई थी परेश की। परेश वहां पी.एस.सी के एग्जाम देने गया था। पहले ही दिन जब उसने अपने पापा के साथ मधु को वहां पाया, तो सुखद आश्चर्य से भर गया था। पता लगा कि मधु प्री-टेस्ट में पास हो गई थी और अब पूरी तैयारी के साथ परीक्षा देने आई है। परेश को देखकर मधु बहुत प्रसन्न हुई।
पेपर के बाद वे लोग बाहर निकले तो मधु जिद करके उसे अपने साथ नेहरू नगर तक ले गई थी। वे लोग वहीं ठहरे थे- मधु की बुआ के घर। चाय पीते वक्त सकुचाते हुए मधु के पापा बोले थे - परेश बेटा, मेरे पास आठ-दस दिन की छुट्टी नहीं है, इसलिए मैं आज ही लौट रहा हूं। तुम मधु को परीक्षा दिला देना। चिंता मत करना, आखिरी दिन मैं आ जाऊंगा इसे लेने। ’’
ठीक है। वह तपाक से बोला था, मैं ही जबलपूर पहुंचा दूंगा इन्हें।
नहीं, इतना कष्ट नहीं कराएंगें आपसे। उसके पापा कृतज्ञ भाव से बोले थे।
परेश आठ दिन तक मधु की सेवा में लगा रहा। सुबह बुआ के घर से मधु को लेता और परीक्षा दिला के उसे छोड़ आता। मधु के सान्निध्य में उसका मन पढ़ाई में कहां से लगता, सो उसके सभी पेपर बिगड़ गए थे, पर उसे परवाह न थी।
यदा-कदा मधु पुछती- जीजाजी, कभी याद आती है हमारी। तो परेश बोलता-तुम्हारी ही तो याद आती है। मधु कहती-इन दिनों आपके साथ रहने से खूब मजा आएगा।
कहने-सुनने की बात और थी, सच यह था कि मधु अपनी पढ़ाई में ऐसी डूबी थी कि वह परेश से पढ़ाई के अलावा कोई दूसरी बातें करती ही नहीं थी।
आखिरी दिन मधु के पापा इंदौर पहुंच गए। वे लोग साथ-साथ लौटे। परेश उतरा तो मधु का वही पुराना आग्रह सामने था- आप जबलपुर कब आ रहे हैं? वे ही आमंत्रण देती गहरी आंखें उसके चेहरे पर फिर गढ़ गई थी।
जल्दी ही, पूरे विश्वास से वह बोला था। इस बार उसने क्षमा भाभी से बात नहीं की। वे पता नहीं कौन-सी नई बात गढ़ लेंगी- मधु के बारे में । उसने चुपचाप जबलपुर की तैयारी की और चला आया यहां। कल से वह दो दिन तक मधु के साथ ही रहेगा। बाजार, सिनेमा और हरसंभव वो जगह जहां वे जा सकते हैं- जरूर जाएंगें। एक तरह से डेटिंग ही करेंगे वे दोनों। क्योंकि दोनों तरफ है आग बाराबर लगी हुई, यह वो ठीक से मानता है।
सुबह मधु के यहां पहुंचकर परेश आश्चर्य से भर देगा, उसे। मन-ही-मन उसने वे सब संवाद दोहराना शुरू कर दिए, जो उसे कल बोलने थे। इसी मनःस्थिति में जाने कब उसकी आंख लग गई । वे दोनों अकेले थे, उस वक्त। भेड़ाघट की एक चट्टान पर बैठकर धुआंधार प्रपात का कलरव सुन रहे थे-वे दोनों। परेश ने आस-पास का जायजा लिया, तो ज्ञात हुआ कि दूर-दूर तक कोई नहीं है, वहां। बस वे दोनों है और चारों ओर पसरी हैं - धुल-मटमैली विषाल चट्टानें।
एकाएक परेश की नजरें मधु के माहक और सुंदर-सुडौल चेहरे से फिसलती हुई उसके दाएं हाथ पर पहुंची तो नजरें बंध गई उसकी। पतली और तराशी हुई-सी अपनी जादुई अंगुलियां एक विशेष अंदाज में धुली-कठोर चट्टान पर रख रखी थीं मधु ने। परेश ने नफासत से मधु का हाथ पकड़ा और आहिस्ता से एक बोसा अंकित कर दिया था, उस पर।
ठक्- ठक्- ठक्। किवाड़ों पर गूंजती तेज दस्तक से परेश की नींद टूटी, तो वह चौंककर जागा। मादक स्वप्न की अवशिष्ट स्मृति उसके मस्तिष्क में शेष थी। इस कारण एक गाढ़ी मुस्कान तिर आई परेश के होठों पर। अपने कपड़े संभालते उसने किवाड़ खोले, तो दरवाजे पर रेस्ट-हाउस का चौकीदार खड़ा था, ’’ साहबजी, आपने सात बजे जगाने का बोला था न, इसलिए डिस्टर्ब किया, साढ़े सात बज गए हैं।’’
’’ऐं... साढ़े सात!’’ चौंककर घड़ी देखी परेश ने, और चौकीदार से चाय लाने का कहकर बाथरूम की ओर लपका। आठ बजे लकदक होकर उसने रेस्ट-हाउस छोड़ दिया। उसका मन तेजी से धड़क रहा था, इस वक्त। कॉलबेल की तीखी ठनक के साथ ही भीतर कहीं दूर से मधु की महीन आवाज गूंजी थी, उसके कानों में, कौन है ?
वह जानबूझकर चुप रहा। पदचाप समीप आई। परेश की धड़कने बढ़ गई। दिल उछल के बाहर आने को व्याकुल हो रहा था। शरीर बेकाबू-सा हो रहा था उसका। काश कि घर पर मधु अकेली हो।
किवाड़ खुले। अलसाई मुद्रा में उबासी लेती मधु उसके सामने थी। हैलो ...मुस्कराते हुए परेश ने केवल इतना कहा।
आइए जीजाजी, पधारिए। मुंह पर एक फीकी-सी औपचारिक मुस्कान लाती मधु ने एक तरफ हटके उसे भीतर आने का इशारा किया। परेश के प्रविष्ट होते ही वह लपककर अंदर चली गई, अपनी मम्मी को पुकारते हुए, ’’मम्मी! देखो तो कौन आए हैं।’’
मानव-मन बड़ा दुराग्राही होता है। परेश को विश्वास था कि मधु उसे देखते ही उछल पड़ेगी। और संभव है उसे लिपट भी जाए। पर यहां तो माजरा कुछ और है। मधु के व्यवहार में न अपने प्रतीक्षित प्रियजन के आने की अतिरिक्त उमंग है, न पहली बार घर आने का उत्साह।
वह सहमा-सहमा-सा खड़ा रहा एक ओर, उसके दिल ने कहा कि संभव है, मधु इन दिनों स्त्रीत्व के विशेष दिनों में हो या यह भी हो सकता है कि आगंतुक का स्वागत करने का यही शालीन तरीका हो मधु का। अभी निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है।
नमस्ते बेटा, मधु की मम्मी ने अचानक उसे चौंका दिया। बैठो न, अभी तक खड़े ही हो।
ऐं...हां...नमस्ते। बैठ रहा हूं आंटीजी। एक कुर्सी को खिसकाकर वह उकडूं बैठ गया।
काफी देर तक आंटी उससे घर तथा क्षमा भाभी के मायके के समाचार पूछती रही थीं और वह बेमन से बताता रहा था, मन-ही-मन कुढ़ते हुए कि मधु भी सचमुच शरारती है। देखो जनबूझकर खुद भीतर जा बैठी है और मुझे यहां मम्मी से उलझा दिया है।
पूरे एक घंटे के बाद मधु ड्राइंगरूम में दिखी, अब परेश ने उसे गौर से देखा। रूखे और बेतरतीब बिखरे बालों के कारण मधु का चेहरा बड़ा मायूस और आकर्षणहीन-सा दिख रहा था। उसने एक ढीला-ढाला गाउन पहन रखा था। गाउन बैसे भी गंदा और धिसा हुआ था, और फिर उसमें कैद मधु का बदन बड़ा बेडौल-सा लगा उसे। उसकी प्रायः चख-चख करती जुबान आश्चर्यजनक ढंग से खामोश थी। परेश का मन कुछ और बुझ गया मधु को देखकर।
लीजिए, खाना खा लीजिए। मधु के हाथ में भोजन की थाली थी, जिसे टेबल पर रखती हुई वह नितांत रूखे में बोल रही थी।
खाना...वह चौंका। होना तो यह चाहिए था कि इस वक्त हलका नाश्ता और चाय ही हो जाती, फिर खाने के वक्त खाना आता। सीधा खाना परोसने का मतलब तो यही है कि खाओ और खिसको यहां से। न ये पूछा कि कब आए ? सामान कहां है ? कैसे हो ? न कोई व्यंगयोक्ति उछाली उस पर बस सीधी खाने की थाली पटक दी उसके सामने । जैसे इतनी दूर वह सिर्फ खाना भकोसने आया है।
क्यों ? साढ़े नौ तो बज गए हैं । दफ्तर जाते वक्त खाना खाके ही निकलते हो ना। लो जल्दी शुरू हो जाओ, तकल्लुफ नहीं। मधु ने दायां हाथ उसके कंधे पर रखकर बाएं हाथ से उसे खाने का इशारा किया और पानी लाती हूं, कहकर भीतर चली गई।
परेश को कुछ नहीं सूझा, तो उसने यकायक अपने सामने वाली थाली खिसका ली। दो सब्जी, अचार और पूड़ी सजा रखी थीं मधु ने थाली में। उसने पहला कौर तोड़ा था कि कॉलबेल चीख उठी। मम्मी उठीं और किवाड़ खोले। दरवाजे पर एक आधुनिक-सा दिखता युवक हाथ में चाबियों का छल्ला घुमाता व्यग्र मुद्रा में खड़ा हुआ था।
उसे देख मम्मी खिल उठीं, अरे राकेश बेटा, आओ। भीतर आता वह युवक आतुर हो पूछ रहा था, मधु कहां है ?
भीतर है, तुम बैठो तो, कहते हुए मम्मी ने दरवाजा बंद किया और उस युवक को बैठने का इशारा करने लगीं।
परेश को लगा कि मुंह के कौर में बाल है। परेशान हो उठा वह यकायक। कौर उगलना बड़ी गंदी हरकत होगी और निगल लेगा, तो दिन-भर परेशान रहेगा। वह उठा और भीतर की ओर बढ़ गया। आंगन में वॉश बेसिन था। परेश ने वहां कौर थूककर कुल्ला किया और ड्रांइगरूम में लौट आया।
''बाल था।'' बिना पूछे ही स्पष्टीकरण-सा देता परेश खिसियानी हंसी हंस रहा था।
''कोई बात नहीं,''’ कहती मम्मी ने राकेश से उसका परिचय कराया। परेश बेटा, ये राकेश हैं। मधु के पापा के दोस्त के लड़के! ये नेवी में इंजीनियर है, विशाखापट्टनम में। मधु से खूब छनती है इनकी। यह शहर नया है न इनके लिए, सो विषाखापट्टनम से आते ही सीधे मधु के पास भागते हैं।’’
''हैलो,'' खाना छोड़ राकेश की झुककर विश किया परेश ने। और बेटा राकेश, ये परेश हैं मेरी भतीजी के देवर, सागर वाले।'' हैलो..., ' राकेश औपचारिक अंदाज में बोला था। मम्मी मधु को बुलाने भीतर चली गई थीं।
अचानक ही आंधी की तरह मधु ड्राइंगरूम में दाखिल हुई और अपने हाथ में पकड़ी पत्रिका सत्यकथा को एक ओर उछालती हुई एक सिसकारी-सी लेकर चीख उठी थी, अरे वाह, आ गए तुम!’’
राकेश का चेहरा प्रफुल्लित हो उठा था और वह मधु को एकटक ताके जा रहा था। एक क्षण बाद ही वह संभलकर बोला, ’’ हां, कल रात आया हूं।’’
''कित्ते दिन रहोगे!'' मधु व्यग्र थी।
''सात दिन।'' अपनी भौंहे उचकाता राकेश बोला था।
''ये ठीक है, खूब मजा आएगा।''मधु चहक रही थी।
''तुम कैसी हो मधु ?'' राकेश का स्वर नेह में ऊभ हो रहा था।
''अच्छी हूं। तुम सुनाओ। कभी याद आती है हमारी!''
''विशाखापट्टनम में आप लोगों को ही तो याद किया करता हूं।''
''क्यों फेंकते हो, हम नहीं लपेटवाले।'' मस्ती में आती मधु को यकायक परेश का ध्यान आया था और उसने परेश को भी संबंधित कर डाला था, ''जीजाजी, आप भी ऐसी बातें करते रहते हो। लेकिन ये बस सब मुंहदेखी बातें है।''
परेश तड़प उठा था। ये आरोप तो मधु पर लगाना चाहता था वह।
''रहने दे, मधु उन्हें खाना तो खा लेने दे।'' हंसती हुई मधु की मम्मी टोक रही थीं उसे।
मधु पुनः राकेश की ओर मुखातिब हो गई थी, ''बड़े स्मार्ट लग इस बार। क्या बात है ? कहीं शादी-वादी तय हो रही है क्या ? या कहीं लाइन मारने जा रहे हो ?''
परेश को यकायक लगा कि उसका दम घुट रहा है। पेट के भीतर से हवा का गोला-सा ऊपर आया और उसका निवाला गले में फंस गया। उसको ठसका लगा, तो देर तक खांसता रहा। आंखों से आंसू झरने लगे थे। पानी पिया तो खांसी कम हुई। निवाले को जैसे-तैसे गटका। उसके बाद अब कुछ खाने की इच्छा नहीं थी। थाली खिसकाई और हाथ धोने उठ खड़ा हुआ।
मधु की मम्मी चौंकी, ''अरे परेश, ये क्या, तुमने तो...।''
''प्लीज आंटी। अब एक कौर भी नहीं खा पाऊंगा। सॉरी।''
हाथ पोंछते हुए वह ड्राइंगरूम में लौटा, तो वे तीनों किसी बात पर लगातार हंसे जा रहे थे। उसे लगा शायद उसकी हरकतों पर ही हंस रहे हैं।
''अच्छा मधु, अब मैं चलता हूं। निकलना है मुझे अभी ...ओ.के. राकेश जी, मिलेगें फिर ...'' बिना किसी भूमिका के तेजी से ये शब्द बोलता परेश दरवाजे की ओर बढ़ा तो मधु की मम्मी ने मधु को टोका, ’’मधु ओ मधु ! सुन तो जरा ये परेश जा रहे है।
सहज रूप से उठती मधु ने उससे नमस्ते की और खुद आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया। बाहर निकलते परेश को पीछे से उसकी आवाज सुनाई दी, ''फिर कभी आइएगा।''
जन-बूझकर उसने कोई उत्तर नहीं दिया और वह मौन होकर तेज कदमों से रेस्ट-हाउस की ओर चल पड़ा। भीतर-ही-भीतर पूरे शहर के माहौल से एक घुटन-सी हो रही थी उसे। अब वह सामान उठाकर जल्द-से-जल्द जबलपुर छोड़ देना चाहता था।
रेस्ट-हाउस से चलते वक्त जब चौकीदार को टिप देने के लिए उसने पर्स खोला तो पर्स में मधु का फोटो अनायास ही नजर आ गया। परेश को मधु की वे आमंत्रण देती प्यासी आंखें उसे फिर से विचलित करने लगीं। उसने मन में तर्क गढ़ा- शायद मधु इस बार किसी वजह से परेशान थी, सो खुल के नहीं मिल सकी। खैर, अगली बार देखेंगें ! जबलपुर छोड़ते वक्त वह फिर से अनमना था।